भारत ज्ञान पिपासु देश है. ऐसा ज्ञान जो मनुष्यता का विस्तार करे, शांति-सद्भाव और लोक कल्याण का मार्ग दिखाये. ऐसे शाश्वत ज्ञान का न केवल भारत में ऋषियों ने सृजन किया, बल्कि यह आह्वान भी किया-आ नो भद्रा:क्रतवो यंतु विश्वत:. यानी दुनिया के किसी भी कोने से ज्ञान प्राप्त हो, उसे बाहें फैला कर ग्रहण करो. मन के सारे दुराग्रहों और संकीर्णताओं को त्याग कर ज्ञानार्जन का संस्कार देने वाली यह भारत भूमि इसीलिए विश्व गुरु कहलायी कि यहां मानव हित में साहित्य लेखन व पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा सबसे पहले विकसित हुई. आश्रम और गुरुकुल इसका केंद्र बने और कालांतर में नालंदा व तक्षशिला जैसे विश्व के अग्रणी और श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई जहां दुनिया भर के लोग शिक्षा प्राप्त करने आते थे. शिक्षा जो कोरा जानकारी बढ़ाने वाला ज्ञान नहीं, मानव हित का बोधि करने वाला ज्ञान जो सद्गुण-सदाचार से युक्त हो. ऋग्वेद जिसे यूनेस्को ने मानव जाति की प्रथम पुस्तकों में माना है, मानव संस्कृति का मान है. उपनिषदों व ब्राह्मण-आरण्यक ग्रंथों में वेद ज्ञान का ही विस्तार है. ये ग्रंथ वैदिक वाङमय का ही अंग हैं. ईशावास्योपनिषद में मानवता, त्याग व दूसरों के हित संरक्षण का जो पाठ है, वह आज दुनियाबी भोग-विलास से उत्पन्न गला-काट होड़ में नष्ट हो रही परस्पर शांति-सौहार्द की भावना को बचाये रखने व उसे दृढ़ करने की प्रेरणा है-'ईशावास्यमिंद सर्वं यत्किग्धिद् जगत्याजगत्ध्तेन् व्यक्तेन भुजीथा: मा गृध: कस्यस्विधनम्. यानी जगत के कण-कण में ईश्वर का वास है, इसलिए उसका भाग छोड़ कर ही उपभोग करो और दूसरे के धन का लालच मत करो. जीवन जीने की कला (आर्ट ऑफ लिविंग) इससे बेहतर क्या हो सकती है ? यह वेद और उपनिषदों की वाणी कालांतर में अलग-अलग रूपों में साहित्य में उल्लेखित हुई. जयशंकर प्रसाद ने जब 'कामायनी' महाकाव्य की रचना की, तो उसमें मनुष्यता का नाद ही गूंजित हुआ.'अपने सुख का विस्तार करो. जग को सुखी बनाओ.' हमारे ऋषियों का दिया मानवता का यह दर्शन ही विश्व की सुख-शांति का मार्ग है, न कि पाश्चात्य दर्शन जिसमें 'सरवाइल ऑफ द फिटेस्ट यानी संघर्ष-टकराव पैदा करने का रास्ता दिखाया गया और कहा कि 'ड्रिंक एंड बी मेरी' यानी खाओ, पीओ और मौज करो. यह पश्चिम का व्यक्तिवादी चिंतन है इसमें सामाजिकता और वैश्विकता का कोई स्थान नहीं है जो व्यक्ति को निजता या अपने सुख के लिए तरक्की करने और आगे बढ़ने का भाव जगाता है. इसमें मानवता के संरक्षण व उसके हित की चिंता कहीं प्रकट नहीं होती है. दरअसल त्याग अपने पास होने को छोड़ना भर नहीं है, बल्कि यह सब ईश्वर का है, मेरे पास जो है वह अपनी जरूरत के लिए उपभोग कर बाकी दूसरों के लिए है, यह 'ट्रस्टीशिप' की भावना ही त्याग है. यह भावना ही परस्पर प्रेम और सामंजस्य जगाती है. इसके मूल में ऋग्वेद का उद्घोष ही है सर्वे भवंतु सुखिन:/सर्वे संतु निरामाया/सर्वे भद्राणि पश्चयंतु/ कश्चिद् दुखभाग्भवेत. यानी सब सुखी हों, सब निरोग हों, सब एक-दूसरे का भला देखें-सोचें-करें और किसी के दुख का कारण न बनेे. इसलिए प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक राम विलास शर्मा ने लिखा है कि ऋग्वेद में मानव चिंतन की प्राचीनतम अवस्था में दर्शन और विज्ञान का जन्म व विकास देख सकते हैं. इस परमाणु युग की विनाशकारी समस्याओं का समाधान भारत के चिंतन में है तो निश्चय ही हमारे ऋषियों व शस्त्रों की ज्ञान संपदा उनके संज्ञान में रही होगी. आज आदमी 'मोर एंड मोर' की चाह में जब अपनों की भी परवाह नहीं करता और अपने सुख के लिए उनका कराने में भी इसे संकोच नहीं होता तब राम याद आते हैं. वाल्मीकि ने राम को अपनी रामायण में 'रामो विग्रहवान धर्म:' कहा है यानी राम धर्म का रूप है अर्थात त्याग व कर्तव्य बोध के प्रतीक. मैथिलीशरण गुप्त ने अपने महाकाव्य 'साकेत' में चौदह वर्ष बाद बनवास पूर्व कर अयोध्या तेरे राम और भारत के बीच संकट का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है. जब भरत को सिंहासन सौंपते हैं तो राम की आंखें भर आती हैं. भरत विचलित होकर पूछते हैं कि आपकी आंखों में आंसू क्यों ? राम दुखी होते हैं, कहते हैं,राज्य सिंहासन प्राप्त करके भी कोई रोयेगा ? जिसे पाने के लिए आज दुनिया भर के छल-प्रपंच होते हैं, खून-खराबा होता है. राम कहते हैं अब तुम्हारे वैसे धर्मनिज राज से प्रजा वंचित हो जायेगी, यह दुख मुझे रुला देने वाला है. पर जीवन दर्शन ही सुख व शांति का मार्ग दिखता है. शायद इसीलिए पुस्तकों को मनुष्य का सच्चा मित्र कहा गया है और शायद इसीलिए कि किताब आदमी की जिंदगी बदल देने की ताकत रखती है कि वह जिंदगी जीने का सही रास्ता दिखाती है. मित्र के बारे में कहा गया है-'य: त्रायते स: मित्र:' यानी जो हमें हमारी बुराइयों से, दुखों से मुक्ति दिलाये वह मित्र है. हमारे मनोविकार, बुराइयां या गलत आदतें ही हमारे दुख का मूल कारण होती हैं. इनकी तरफ से हम सदा आंखें मूंदे रहते हैं और अपने दुख के लिए दूसरों को कोसते रहते हैं. श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और खुद ही शत्रु-बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्यना जिता:/अनात्मनस्तु शत्रतुत्वे वर्तेतातौव शत्रुवत्. जिसने स्वयं को जीत लिया यानी अपनी कमजोरियां-बुराइयों पर जीत हासिल कर ली तो हम खुद के मित्र हैं अन्यथा हम खुद ही अपने शत्रु हैं क्योंकि आखिरकार वे बुराइयां ही हमें ले डूबेंगी. इस तरह गीता जैसा ग्रंथ जीने का सही मार्ग दिखाता है. पुस्तकें जीवन को संवारने के लिए कितनी जरूरी और उपयोगी हैं, यह लोकमान्य तिलक द्वारा मांडले जेल में लिखे 'गीता रहस्य' ग्रंथ के बारे में गांधी जी की टिप्पणी कि 'यह ग्रंथ तिलक का शाश्वत स्मारक है' से प्रकट होता है. यह उचित ही है कि आज के प्रतिस्पर्धा दौर में अच्छा कैरियर बनाने के लिए हमारे नौजवान कड़ी मेहनत करते हैं. दिन-रात पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ कर परीक्षा में ज्यादा से ज्यादा परसेंटेज लाने में जुटे रहते हैं ताकि किसी से पिछड़ न जायें. लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि कैरियर की दौड़ में आगे निकलने की होड़ के चलते कहीं हम जिंदगी जीने में न पिछड़ जायें. यानी बहुत कुछ पाने की लालसा में इनसानियत ही हमारे हाथ से न खिसक जायें. पाठ्यक्रम की पुस्तकें हमें नामी इंजीनियर, डॉक्टर, उद्योगपति तो बना सकती है, लेकिन अच्छा इनसान बनने का जज्बा तो उन्हीं किताबों को पढ़ने से जगता है जो जीवन मूल्यों, साामाजिक सरोकारों, राष्ट्रीय हितों व मानव कल्याण के प्रति हमें जागरूक करती है. अगर अच्छे इनसान नहीं बन सके तो बाकी सब बनना बेमानी है क्योंकि तब हम बहुत कुछ पाकर भी आखिरकार ठगे से खड़े रह जाते हैं और तनाव, अवसाद व टकराव में ही जिंदगी बीत जाती है. डॉ अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक 'इंडिया विजन 2020' में सबके लिए एक अहम सवाल छोड़ा है कि आखिर हम अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया छोड़ कर जाना चाहते हैं ? जाहिर है हर माता-पिता अपनी संतान का भविष्य सुखी देखना चाहते हैं, लेकिन उन्हें सच्चा सुख व शांतिपूर्ण-तनावरहित जीवन तभी मिलेगा जब हम उनकी दोस्ती जीवन की प्रेरणा जगाने वाली अच्छी किताबों से करायें. बहुत जरूरी है कि बच्चों के जन्मदिन पर उन्हें कीमती उपहार देने के साथ-साथ एक मनोरंजक ओर प्ररेणास्पद पुस्तक भी भेंट करें. वास्तव में इस प्रयास को एक आंदोलन बनाने की जरूरत है.