अहमदाबाद के कोचरब गांव में 1915 में स्थापित आश्रम में, जो बाद में शहर में ले जाया गया था और सत्याग्रह आश्रम के नाम से मशहूर हुआ था, सब लोग अपना और आश्रम का काम खुद करते थे। वे पानी भी अपने आप ही भरते थे। बापू भी अपना सब काम करते थे। जाहिर है, यह नियम उन पर भी लागू था। एक रात बापू देर तक काम करते रहे। आंख खुलने पर उन्होंने आटा भी पीसा। इससे थकान और नींद के कारण उनके सिर में दर्द होने लगा। फिर भी रोज की तरह वह पानी भरने के काम में जुटे। लोगों ने कहा, आराम करें। पानी की फिक्र न करें। पर बापू आश्रम के कार्यकर्ताओं की बात कहां मानने वाले थे? वह कुएं पर आ गए। तभी एक कार्यकर्ता चुपचाप उनकी कुटिया में गया और वहां से सब छोटे-मोटे बरतन उठा लाया। साथ ही उसने सब बच्चों को भी बुला लिया। अब वह पानी खींचता, बरतन भरता, और झटपट उठाकर किसी बच्चे को दे देता। इस तरह वह बापू की बारी टाल जाता। बच्चे ठहरे शरारती। वे उस महाशय का खेल समझ गए। अब वे दौड़-दौड़कर उसके पास जाने लगे। वे कहते, पहले मुझे दो, और बरतन झपट लेते। यही नहीं, वे उसमें पानी भी भर कर ले आते। इस तरह काफी देर तक बापू की बारी नहीं आई। कोई बस चलता न देख बापू आश्रम में बरतन ढूंढने लगे। एक तरफ छोटे बच्चों के नहाने का टब रखा हुआ था। वह उसे उठाकर कुएं पर ले आए और उस कार्यकर्ता से बोले, इसे भर दो। कार्यकर्ता ने कहा, इसे आप कैसे उठाएंगे? बापू ने जवाब दिया, तुम भर तो दो, फिर देखना, मैं कैसे उसे उठाता हूं। उसने चुपचाप एक घड़ा भरकर बापू के सिर पर रख दिया। बापू घड़ा लेकर आश्रम चले गए।