कश्मीर फिर चर्चा के केंद्र में है और इसकी वजह है प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ जितेंद्र सिंह राना का बयान, जिसमें उन्होंने अनुच्छेद 370 की बात की. इससे पहले भी लगातार हमारे संविधान का यह अनुच्छेद राजनीतिक प्रोपेगैंडा का हथियार बनता रहा है. कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, पूर्व का जनसंघ और वर्तमान की भारतीय जनता पार्टी, वामपंथी, समाजवादी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि सब अपने-अपने स्वार्थ से मेल खाने वाला सच बताते रहे हैं. हम भारत के लोग इसी प्रोपेगैंडा के आधार पर ही अपनी राय कश्मीर और अनुच्छेद 370 को लेकर बनाते रहे हैं. चूंकि इन ताकतों द्वारा उजागर किया जाने वाला सच स्वार्थ प्रेरित है, लिहाजा हम भारत के लोग भी जाने-अनजाने में इन्हीं स्वार्थो में से किसी एक को समस्या व समाधान मानते हैं. अब डॉ जितेंद्र सिंह के बयान और उन पर आ रहीं प्रतिक्रियाओं पर नजर डालिए, तो क्या किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचा जा सकता है जो पूरे मामले को सही परिप्रेक्ष्य में देख पाने मददगार हो सके. कोई कह रहा है कि यह जम्मू-कश्मीर और भारत को जोड़ने वाला सेतु है और यदि यह अनुच्छेद नहीं रहेगा तो यह सेतु खत्म हो जायेगा. कोई कह रहा है कि अलगाववाद के मूल में यह अनुच्छेद ही है और इसे हटा दिया जाये तो समस्या के समाधान में मदद मिलेगी. कोई इसे जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की शर्त बता रहा है तो कोई इसे पंडित नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को खुश करने के लिए दिये गये अधिकार के रूप में परिभाषित कर रहा है. यह बिलकुल वैसी ही बात है जैसे अंधों की टीम को एक हाथी मिल गया. किसी ने उसकी सूंड़ पकड़ी, किसे ने टांग, किसी ने पूंछ, किसी ने पेट तो किसी ने कान. जिसके हाथ जो आया, उसने हाथी को उसी तरह परिभाषित करना शुरू कर दिया. हालांकि यहां 370 रूपी हाथी को परिभाषित या व्याख्यायित कर रहे लोग अंधे नहीं हैं, लेकिन वे सिर्फ उतना ही देखना या दिखाना चाहते हैं जितना उनकी स्कीम में फिट हो रहा है. जम्मू-कश्मीर से बाहर वहां के लोगों, उनके इतिहास और उनकी मौजूदा जिंदगी के बारे में जानकारी बहुत ही कम है. इस राज्य का नाम लेने से दो ही तस्वीरें हमारे दिमाग में बनती हैं. पहली, एके 47 यानी आतंकवाद की और दूसरी खूबसूरती की. हां, अमरनाथ यात्र और वैष्णोदेवी की भी याद आ जाती है. इसके अलावा, वहां के बारे में हम कितना जानते हैं? आम लोगों के बीच अनुच्छेद 370, जम्मू-कश्मीर के इतिहास, उसके भारत में विलय, उसकी सूफी परंपरा आदि को लेकर जानकारी का स्तर शून्य है. वे शायद यह भी नहीं जानते कि कबायली हमले के समय कश्मीरियों की भूमिका क्या रही और कश्मीर घाटी का मुंह प्राकृतिक रूप से मुजफ्फराबाद की ओर ही खुलता है या आजादी से पहले कश्मीर को सड़क मार्ग से देश को जोड़ने वाली सड़क श्रीनगर से मुजफ्फराबाद व रावलपिंडी होते हुए लाहौर पहुंचती थी. मेरे एक मित्र, जो राजनीतिक रूप से काफी सजग हैं, मुङो सुना रहे थे कि पंडित नेहरू, कांग्रेस और तथाकथित बुद्धिजीवियों की वजह से ही जम्मू-कश्मीर का इंटीग्रेशन (एकीकरण) बाकी देश के साथ नहीं हो पाया और अनुच्छेद 370 और इसको बनाये रखने वाली ताकतें ही इसमें सबसे बड़ी बाधा हैं. मैंने पूछा कि अनुच्छेद 370 इसके लिए क्यों और कैसे जिम्मेदार है. इस पर वह बोले, अब आप भी तथाकथित बुद्धिजीवियों की तरह कहेंगे कि यह अनुच्छेद तो हर राज्य के लिए होना चाहिए. मैंने कहा कि नहीं, मैं यह नहीं कहने जा रहा हूं, लेकिन आपसे यह जरूर समझना चाहता हूं कि अनुच्छेद 370 अलगाव के लिए कैसे जिम्मेदार है? वे बोले- आप तो चार-पांच साल वहां रहे हैं, क्या आप वहां जमीन खरीद सकते हैं, क्या आपका बेटा वहां राज्य सरकार की नौकरी कर सकता है, क्या आप वहां विधानसभा के लिए वोट डाल सकते हैं, क्या वहां की सरकार को राष्ट्रपति बरखास्त कर सकते हैं..? मैंने पूछा कि इसका अनुच्छेद 370 से क्या लेना-देना, वह तमक गये और कहा कि इसी के चलते तो वहां बाहरी जमीन नहीं खरीद सकता. खैर, मैंने बताया कि जमीन तो हम सीएनटी एक्ट (छोटानागपुर काश्तकारी कानून) के तहत आनेवाले क्षेत्र में भी नहीं खरीद सकते, जबकि यहां तो 370 नहीं है. अस्सी के दशक में फारूक अब्दुल्ला की सरकार बरखास्त की गयी थी और जीएम शाह को मुख्यमंत्री बनाया गया था. 90 के दशक में वहां विधानसभा निलंबित करके राष्ट्रपति शासन लगाया था और फिर 1996 में चुनाव हुए थे आदि-आदि. दिक्कत यह है कि एक तो हमारी जानकारी कम है और दूसरे हम कश्मीर के बारे में अपनी राय कम्युनल पुट के साथ ही बनाते हैं, भले ही हम अपने को सेकुलर मानते हों. जिस तरह झारखंड में सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट आजादी से बहुत पहले बना और झारखंड की सरकार का इसे बनाने में कोई योगदान नहीं है, उसी तरह जम्मू-कश्मीर में स्टेट सबजेक्ट (राज्य के वाशिंदों) को लेकर कानून वहां के महाराजा ने 1927 में बनाया था और इस कानून की मांग वहां के हिंदुओं ने की थी जिससे राज्य के प्राकृतिक संसाधनों व अवसरों पर उनका आधिपत्य बना रहे. रही वहां की सरकार के कार्यो में केंद्र के अधिकार की बात, तो यह जानना जरूरी है कि वहां विलय के बाद संविधान में 370 का प्रावधान होने के एक-दो वर्ष बाद ही सरकार के मुखिया शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को गिरफ्तार करने में न यह प्रावधान आड़े आया और न ही 1974 में, जब इसी नेता को बिना चुनाव या विधानसभा में उनकी पार्टी का एक भी सदस्य न होने के बावजूद मुख्यमंत्री बना दिया गया. आखिर कहां है अनुच्छेद 370? दरअसल, अनुच्छेद 370 और जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को कांग्रेस की सरकारों ने ही धीरे-धीरे निष्प्रभावी करने का काम किया है. पचास के दशक में वहां सद्र-ए-रियासत (राष्ट्रपति) और वजीर-ए-आजम (प्रधानमंत्री) होता था, लेकिन अगले ही दशक में सद्र बाकी राज्यों की तरह गवर्नर (राज्यपाल) हो गये और वजीर-ए-आजम वजीर-ए-आला (मुख्यमंत्री). इस समय पूरे राज्य में केंद्र सरकार का कानून लागू है जिसके तहत सुरक्षा बलों (फौज, अर्धसैनिक बलों व पुलिस) को विशेष अधिकार मिले हुए हैं और राज्य सरकार इस कानून को चाह कर भी हटा नहीं सकती. कहां है 370?