क्या दिल्ली से कुछ सीखेगा बिहार

रिपोर्ट: रविभूषण

एक नवजात राजनीतिक पार्टी \'आप\' और उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल से दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस की ऐसी बुरी हार कैसे हुई? क्या आप की जीत के साथ वोट बैंक, ध्रुवीकरण, जोड़-तोड़, अलगाव-असहिष्णुता, सांप्रदायिकता, जाति, धर्म, वर्ग, संप्रदाय और लैंगिक राजनीति से भिन्न राजनीतिक क्षितिज पर एक नई राजनीति का उदय हो रहा है?​ दिल्ली के मतदाताओं ने जाट आधारित भारालोद और सिख आधारित अकाली दल को एक प्रतिशत वोट भी नहीं दिया। दिल्ली की उच्च आय वाली दस सीटों में से दस, मध्य आय वर्ग की 28 सीटों में से 26 और निम्न आय वर्ग की 32 में से 31 सीट आप को मिली है। सही अर्थों में \'आम आदमी\' भारतीय राजनीति के केंद्र में आ गया। इस नतीजे से सभी राजनीतिक दल संदेश प्राप्त कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव ने ही नहीं, पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद, एमडीएमके के वायको और शिवसेना के उद्धव ठाकरे जैसे कई नेता केजरीवाल को बधाइयां दे रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में से इस नतीजे से तुरंत प्रभावित होने वाला राज्य बिहार है। झारखंड भी। चुनाव के दिन बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने प्रधानमंत्री से भेंट की थी। मांझी को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनाया था। केजरीवाल और नीतीश, दोनों ने भिन्न कारणों से ही सही, मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। केजरीवाल को अपार बहुमत मिला है। और अभी यह देखा जाना बाकी है कि बिहार में क्या होता है। दिल्ली के नतीजे ने भाजपा को सावधान की मुद्रा में ला दिया है। अब वह मांझी को समर्थन देकर अपनी छवि खराब करना नहीं चाहेगी। जबकि महीनों पहले से वह जदयू में टूट कराकर सरकार बनाने के पक्ष में थी। मांझी उसके सहारे इत्मीनान से राजनीतिक नाव खे रहे थे, जो अब डगमगा रही है। मांझी पार्टी से निष्कासित किए जा चुके हैं। हालांकि उनके समर्थक विधायकों की याचिका पर पटना हाई कोर्ट ने नीतीश को विधायक दल का नेता चुने जाने की प्रक्रिया अवैध मानी है। पर भाजपा ने कहा है कि वह मांझी के विश्वास मत का समर्थन नहीं करेगी। वह सदन से बहिष्कार भी कर सकती है। नीतीश अपने समर्थक विधायकों की परेड राष्ट्रपति भवन में करा रहे हैं। बिहार के प्रसंग में राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण है। झारखंड में भी झाविमो के छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर भाजपा पूर्ण बहुमत प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रही है। नीतीश और लालू जेपी आंदोलन की उपज हैं। केजरीवाल अन्ना हजारे के साथ रहे हैं। मोदी के यहां धरना-प्रदर्शन और आंदोलन का महत्व नहीं है। पर बिहार में महादलित राजनीति का खेल जारी है। केजरीवाल ने कोई वोट बैंक का कार्ड नहीं खेला था। जबकि नीतीश ने लोकसभा चुनाव के बाद महादलित कार्ड खेला था। केजरीवाल को बधाइयां देने वाले क्या वाकई वोट बैंक की राजनीति छोड़ देंगे? भाजपा की सरकार क्या बिहार और झारखंड में कोई उदाहरण कायम करेगी? मांझी का समर्थन उसके लिए आत्मघाती होगा। चुनाव और सत्ता के खेल में पुराने दलों का नया-स्वस्थ आचरण असंभव न सही, कठिन तो है ही।


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