गाय नहीं बची, तो भारत भी नहीं बचेगा

रिपोर्ट: बलदेव भाई शर्मा: चेयरमैन, नेशनल बुक ट्रस्ट

गाय का प्रश्न किसी धर्म या मजहब से जुड़ा नहीं है. गाय भारत की सांस्कृतिक, आर्थिक और कृषि संरचना की पहचान है. यह न बची तो भारत भी न बचेगा, बल्कि कत्ल किये जा चुके गोवंश की हड्डियों के ढेर पर खड़ा ‘इंडिया‘ अट्टहास कर रहा होगा. ‘गावो विश्वस्य मातर:’ यह वेदगान न सिर्फ भारत, बल्कि समस्त मानव जाति के लिए गाय की महत्ता बताता है. मानव समाज की समृद्धि गो की समृद्धि के साथ जुड़ी है. यह वैज्ञानिक भी मानते हैं कि गाय का दूध जन्मदात्री मां के दूध के समान गुणकारी होता है. उसे पीने पर बच्च न सिर्फ परिपुष्ट होता है, बल्कि उसमें सात्विकता, आंतरिक ऊर्जा और स्फूर्ति का विकास होता है. देखने में भी आता है कि भैंस का बच्च जहां सुस्त होता है, वहीं गाय का बछड़ा लगातार उछल-कूद करता है. महात्मा गांधी कहा करते थे कि ‘गो माता कई मामलों में जन्म देनेवाली मां से भी उत्तम है. मैं गाय की पूजा करता हूं और सारा विश्व भी इसके विरुद्ध हो जाये, तब भी उसकी पूजा करता रहूंगा.’ सब जानते हैं कि गांधी अंधविश्वासी नहीं थे, वह प्रयोगवादी थे और लगातार प्रयोग के बाद ही किसी सत्य को स्वीकार करते थे. यह विडंबना ही है कि गोपाल श्रीकृष्ण के इस देश में गोहत्या का जघन्य पाप लगातार हो रहा है. यहां तक कि गोहत्या पर प्रतिबंध लगाये जाने की बात को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें होती हैं. अभी महाराष्ट्र में प्रतिबंध लगाये जाने के बाद गोमांस भक्षण के पक्ष में कई नामी-गिरामी लोग उतर आये हैं. कोई कह रहा है कि गोमांस गरीबों का प्रोटीन है, तो किसी का तर्क है कि सरकार यह तय करनेवाली कौन होती है कि हम क्या खायें क्या न खायें. मानो गोमांस के अलावा खाने को कुछ और बचा ही नहीं है. हालांकि गरीबों का नाम लेकर ज्यादातर फाइव स्टार संस्कृति के लोग ही महाराष्ट्र सरकार के फैसले का विरोध कर रहे हैं. शायद ये ही वे लोग हैं, जिनकी शह पर हैदराबाद से लेकर दिल्ली तक गोमांस से बने व्यंजनों का ‘फूड फेस्टिवल’ आयोजित करने की नृशंस कोशिशें होती हैं. इस पूरे उपक्रम में कुछ खास खाने के शौक के बजाय गाय को लेकर हिंदू भावनाओं के उत्पीड़न की सेकुलरी सोच ही ज्यादा दिखती है. वरना जिस गोहत्या की पीड़ा ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के हृदय को झकझोर दिया और ‘दांतों तले है तृण दबा गो कह रही’ जैसी पंक्तियां फूट पड़ीं, यह सेकुलरी सोच उस मर्मातक पीड़ा से अछूती कैसे रह सकती है. संत विनोबा, जो गोवध निषेध के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे, कहा करते थे कि ‘गाय की आंखों में मातृत्व और अहिंसा ही झलकती है.’ मानव कल्याण की पोषक गाय की हत्या और उसके मांस के भक्षण की पैरवी करना इंसानियत तो कतई नहीं कही जा सकती. भारत की सनातन संस्कृति की आधार है गो, गंगा, गायत्री और गीता. वेद और पुराणों में गो-महिमा का विशद् वर्णन है. भारतीय ऋषियों-मनीषियों ने गाय को सिर्फ हिंदुओं के लिए पूज्य या उपयोगी नहीं बताया, बल्कि ‘मातर: सर्वभूतानां गाव:’ कह कर मनुष्य मात्र के लिए हितकारी बताया है. पुराणों में तो धेनु और धात्री के रूप में गाय के सींग पर समस्त पृथ्वी के टिके होने का उल्लेख है. प्राचीन शब्दकोष निघंट की व्याख्या करते हुए यश्कराचार्य ने अपने ग्रंथ निरुक्त में ‘गो’ के 40 अर्थ बताये हैं. जिस आयुर्वेद की महत्ता अब चिकित्सा विज्ञानी भी मानने लगे हैं, उसने गाय को मनुष्य की जीवनी शक्ति माना है. आयुर्वेद में पंचगव्य को, जिसमें देसी नस्ल की गाय का दूध, घी, मूत्र, गोबर और दही शामिल हैं, कई लाइलाज रोगों में भी लाभकारी बताया गया है. देसी गाय के दूध में मौजूद ए2 प्रोटीन असाध्य रोगों की रामबाण दवा मानी गयी है. विनोबा कहा करते थे कि गाय तो मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक भूमिका निभाती है. जब मरणासन्न व्यक्ति मृत्यु की प्रतीक्षा में बेहद कष्ट भोगता है, तब गोदान करा कर उसकी मृत्यु को आसान बनाये जाने की बात अकसर देखने में आती है. जो गाय मनुष्य को मृत्यु की असह्य पीड़ा से भी निजात दिलाती है, उसी गाय की हत्या कर गोमांस का कारोबार फैलाना बेहद शर्मनाक है. गाय की उपयोगिता देख कर ही शायद उसमें 33 कोटि देवताओं का वास होने की बात कही गयी है, ताकि लोग उसे महत्व दें, उसकी रक्षा और साज-संभाल रखें. गाय ग्लोबल वार्मिग को बेअसर करने और पर्यावरण के लिए भी अत्यंत उपयोगी है. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गोवंश कितना उपयोगी रहा है, हल जोतने से लेकर खाद और किसान परिवारों के भरण-पोषण के लिए दूध की उपलब्धता तक, इसकी विवेचना की शायद ही जरूरत हो. हरित क्रांति के दौर में कृषि के यंत्रीकरण और रासायनीकरण ने जिस तरह जमीनों को बंजर बना दिया है, पंजाब और हरियाणा जैसे सर्वाधिक अन्न उत्पादन करनेवाले राज्य इस संकट से किस तरह जूझ रहे हैं, ये खबरें आये दिन देश, विशेषकर कृषि विज्ञानियों को चिंतित कर रही हैं. यह ठीक है कि हरित क्रांति ने अन्न उत्पादन बढ़ाया, पर उसके खतरनाक प्रभावों ने न केवल जमीन की उपजाऊ ताकत छीन ली, बल्कि खाद्यान्नों को जहरीला व अस्वास्थ्यकर बनाया. हरित क्रांति की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ी, जो महंगी होती कृषि लागत से कर्जदार होकर जान देने पर मजबूर हो गये. गाय और गोवंश इसका तोड़ है, जो भारत के तीन चौथाई छोटे और मझोले किसानों के लिए जीवन रक्षक और खुशहाली का आधार बन सकता है. विकास, जो प्रकारांतर से विनाश का भी पर्याय बन रहा है, गोवंश की समृद्धि से समावेशी रूप ग्रहण कर सकता है. गाय का प्रश्न किसी धर्म या मजहब से जुड़ा नहीं है, अगर होता तो हरियाणा के मेवात में सैकड़ों मेव मुसलमान सौ-सौ, दो-दो सौ गायें नहीं पालते. गाय इस मेव परिवारों की खुशहाली का सबब है. इसके बावजूद भारत में रोज करीब 60 हजार गोवंश का कत्ल देश की सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने का षड्यंत्र तो है ही, हमारी अर्थव्यवस्था को भी कमजोर कर रहा है. यह तथ्य चौंकानेवाला है कि 1951 में गोवंश कुल पशुधन का 53.04 प्रतिशत था, जो 1912 में सिर्फ 37 प्रतिशत रह गया. जबकि भैंस की हिस्सेदारी बढ़ी है. अब मात्र 13 करोड़ गोवंश ही देश में बचा है. देसी गाय की 64 नस्लों में से 39 ही बची हैं. एक अनुमान के अनुसार देश में छोटे-बड़े, वैध-अवैध करीब 40 हजार कत्लखाने हैं. देश के अधिकांश राज्यों में में गोवध बंदी कानून हैं, लेकिन उनमें ऐसे पेंच हैं कि गो हत्या रुकती ही नहीं या फिर वोट राजनीति के चलते उन कानूनों का सख्ती से पालन नहीं कराया जाता. केंद्र सरकार गो हत्या रोकने के प्रति गंभीर दिख रही है. जरूरी है कि वह एक सशक्त केंद्रीय कानून बनाये और उसका सख्ती से पालन भी कराये. कोश्यारी समिति की सिफारिशों के अनुरूप मांस निर्यात नीति में बदलाव भी करे. समाज की भी जिम्मेवारी है कि वह गोरक्षा के सवाल पर सजग हो. गाय भारत की सांस्कृतिक, आर्थिक और कृषि संरचना की पहचान है. यह न बची तो भारत भी नहीं बचेगा, बल्कि कत्ल किये जा चुके गोवंश की हड्डियों के ढेर पर खड़ा ‘इंडिया’ अट्टहास कर रहा होगा.


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