पेशावर की एक बिलखती मां ने सवाल किया- क्या यह इसलाम है? भारतीय उलेमा ने इस सवाल का जवाब दिया- नहीं, यह इसलाम नहीं है. लेकिन, अहम सवाल यह है कि मौलाना इसलाही के बेरहमाना हिंसा पर ये उलेमा क्या कहेंगे? क्या उन्हें मुसलमान नहीं कहा जाये? पेशावर में मासूमों के कत्ल के बाद एक महिला ने पूछा, ‘क्या यह इसलाम है?’ वह खून से लथपथ अपने स्कूल जानेवाले बच्चों की लाशों के ऊपर रो रही थी. मासूम बच्चों और महिला शिक्षा के फिक्रमंदों की हत्या करनेवालों का संबंध पाकिस्तान के तालिबान से है. ये लोग दीनी मदारिस के छात्र हैं, जो इसलाम की शिक्षाओं से अच्छी तरह परिचित हैं. इसके बावजूद उन्होंने गर्व के साथ इसलाम के नाम पर मासूम जानों की हत्या कर दी. इससे स्पष्ट है कि वे इसलाम की सरबुलंदी और दुनिया में खुदा की खुदाई को स्थापित करने के अपने झूठे घमंड में हैं. इसलिए स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठना था कि क्या वास्तव में यह इसलाम है? भारतीय मुसलिम उलेमा ने इस सवाल का जवाब दिया है. एक अंगरेजी दैनिक की रिपोर्ट के अनुसार, मुसलिम उलेमा ने पेशावर हमले को इसलाम के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ बताया. पूर्व सांसद और जमीयत उलेमा ए हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में कहा कि जिस बे-रहमाना तरीके से छोटे बच्चों को जबह किया गया है, उसकी अत्यंत कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए. यह सरासर इसलाम विरोधी है, क्योंकि न तो इसलाम में और न ही समाज में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह है. दिल्ली की जामा मसजिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने कहा कि तालिबान आतंकियों ने बच्चों को निशाना बना कर न केवल इसलाम धर्म को बदनाम किया है, जिसके नाम पर वह सब कुछ कर रहे हैं, बल्कि उन्होंने जिंदा बच जाने वालों को भी भयभीत कर दिया है. इमाम बुखारी ने कहा कि यह इसलाम के खिलाफ है, मानवता के खिलाफ एक हमला है. इस शैतानी हमले ने और भी बहुत कुछ नुकसान पहुंचाया है. मैंने अस्पताल में घायल पड़े एक बच्चे को देखा. वह टीवी पर बोल रहा था, ‘अगर मैं बच गया, तो प्रतिशोध के लिए जीवनभर लड़ता रहूंगा.’ दरअसल, ये लोग हिंसा के बीज बो रहे हैं और उनकी धरती आतंकवाद का अड्डा बन गयी है. इस तरह तालिबान इसलाम को बदनाम कर रहा है. जमाते इसलामी के प्रमुख मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने कहा कि जो समझते हैं कि इसलाम ऐसी कायरतापूर्ण कार्रवाइयों की अनुमति देता है, वे इसलाम को लेकर भ्रम और गलतफहमी के शिकार हैं. यह सब तो बेजरर जजबात हैं, लेकिन इनसे सवाल खत्म नहीं होता. लोगों का सवाल यह है कि ऐसी कायरतापूर्ण हिंसा इसलाम का उल्लंघन है, तो इसलामी सिद्धांतों के विशेषज्ञ इसलामी मदरसों के छात्र आये दिन इस तरह के अत्याचार में क्यों लिप्त नजर आते हैं और क्यों जहां भी उन्हें मौका मिलता है जुर्म करते हैं? इसके साथ ही एक अहम सवाल यह भी है कि हैदराबाद के मौलाना अब्दुल अलीम इसलाही जैसे लोग नागरिकों और विद्वानों के समूह में सम्मान के साथ कैसे रह सकते हैं? क्या अब उलेमा एकजुट होकर उन्हें इसलाम के दायरे से खारिज कर देंगे? ‘इसलाम और हिंसा’ विषय पर डॉ निजातउल्लाह सिद्दीकी के एक लेख के जवाब में मौलाना अब्दुल अलीम इसलाही ने भी लेख लिखा है. डॉ सिद्दीकी ने उलेमा की उन्हीं भावनाओं को व्यक्त किया है, जो वह पेशावर में आतंकवादियों के हमलों के बाद कर रहे हैं. लेकिन, इसके विरोध में मौलाना इसलाही का लेख तालिबानियों के जुल्म और हिंसा को औचित्य प्रदान करने के समान है. उपरोक्त उलेमा में से किसी ने भी, और खुद डॉक्टर सिद्दीकी ने भी, अब तक मौलाना इसलाही के लेख को रद्द नहीं किया है. वह अब भी बदस्तूर अपना मदरसा चला रहे हैं और तालिबानी मानसिकता से लोगों को सैद्धांतिक शिक्षा प्रदान कर रहे हैं. इस दौरान उन्होंने भारतीय मुसलिम आतंकवादियों की एक पीढ़ी को सैद्धांतिक रूप से प्रभावित किया है. अब उन्हें इंडियन मुजाहिदीन के सैद्धांतिक संस्थापक के रूप में भी जाना जाता है. क्या उलेमा इस बात की व्याख्या पेश करेंगे कि वह क्यों मौलाना इसलाही के जिहादी लिटरेचर के प्रति चुप हैं? क्या वह मौलाना अलीम उद्दीन इसलाही से प्रभावित उन भारतीय तालिबानियों की निंदा करने के लिए पेशावर जैसे किसी हमले का इंतजार कर रहे हैं? (न्यू एज इसलाम डॉट कॉम से साभार)