आखिर ट्रेनों के लेट चलने से क्यों परेशान हैं नरेंद्र मोदी !

रिपोर्ट: साभार

नयी दिल्ली : देश में नरेंद्र मोदी की सरकार को सत्ता सम्हाले 10 महीने हो चुके हैं और इन दस महीनों में ही इस सरकार ने अपने सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों में से एक रेल मंत्रालय में मंत्रीपद की कमान दो बार बदली है. नरेंद्र मोदी ने पहली बार सदानंद गौड़ा को रेल मंत्री बनाया था लेकिन उनसे रेलवे की कार्यप्रणाली में अपेक्षित सुधार न होते देख फेर-बदल करते हुए उनकी जगह सुरेश प्रभु जैसे तेज-तर्रार नेता को रेल मंत्री बनाया गया. सरकार को प्रभु से उम्मीद थी कि उनका लम्बा अनुभव रेलवे की जंग लगी व्यवस्था को सुधारने के साथ-साथ इसे मुनाफे और विकास की पटरी पर वापस लायेगा. हालांकि, प्रभु ने रेल मंत्री बनने के बाद से रेलवे की सेहत सुधारने को लेकर अपनी तरफ से पुरजोर कोशिशें करनी शुरू कर दी हैं और इसी कारण इस बार पेश हुए रेल बजट में उनके पिटारे से कोई सस्ती और लोक-लुभावन घोषणा नहीं की गयी और ना ही आम जनता को किराये में कोई छूट दी गयी. जानकारों के मुताबिक ये रेलवे का सुधारवादी बजट था. इस बजट में एक बात खास रही कि सुरेश प्रभु ने रेलवे के पुरानी योजनाओं को पूरा करने पर ध्यान देने की बात की. लेकिन रेल मंत्री चाहे जितनी कोशिश कर लें, जब तक रेलवे के अधिकारियों की कार्य-शैली नहीं सुधरेगी और देश की जनता के यातायात का सबसे बड़ा माध्यम भारतीय रेल की रेलगाडियां समय पर नहीं चलेंगी, तब तक अपेक्षित सुधार की आशा झूठी ही रहेगी. अंग्रेजी अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से, खबर है कि भारतीय रेल की ट्रेनों की आवाजाही में पिछले दस महीनों में और सुस्ती आई है यानी ट्रेनें बहुत विलम्ब से चल रही हैं जिसकी वजह से न सिर्फ रेलवे को इन ट्रेनों के परिचालन में रोज सैकड़ों करोड़ का घाटा हो रहा है बल्कि यात्रियों को भी इस अनावश्यक देरी की वजह से तमाम नुकसान हो रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय को लगातार सांसदों, मंत्रियों और आम नागरिकों की तरफ से ट्रेनों के देरी से चलने की शिकायतें मिल रही हैं. इसी वजह से प्रधानमंत्री ने रेल मंत्रालय से ट्रेनों के देरी से चलने का कारण पूछा है. हालांकि, रेलवे ने इस बाबत, पीएमओ की तरफ से कोई आधिकारिक पत्र मिलने से इनकार किया है मगर अंदरखाने की सूचना के मुताबिक, पीएमओ की इस दरियाफ्त से रेल मंत्रालय के अधिकारियों में खलबली मच गयी है और रेलवे ट्रेनों के देरी से चलने के कारणों की जांच में जुट गया है. जानकारी के मुताबिक, इनमें से कई शिकायतों में ये लिखा गया है कि देश में इमरजेंसी के समय में ट्रेने किस प्रकार से सही समय पर चलती थीं. देश में आपातकाल की समाप्ति के बाद ट्रेनों के समय पर परिचालन का ग्राफ नीचे गिरता चला गया और ताजा आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल कांग्रेस के शासन काल में मार्च 2014 में जहां देश भर में करीब 84 फीसदी ट्रेनें सही समय पर चलती थीं, वहीं इस साल यानी मार्च 2015 के आंकड़ों के मुताबिक नयी सरकार के कार्यकाल में अब महज 79 फीसदी रेलगाडियां ही सही समय पर चल पा रही हैं. जबकि, नॉर्दर्न रेलवे के आंकड़े को देखें तो इसमें सबसे ज्यादा गिरावट आई है. सही समय पर चलने को लेकर पिछले साल मार्च 2014 में जहां करीब 82 फीसदी ट्रेनें राइट टाइम पर चलती थीं, वहीँ इस साल मार्च 2015 में ये आंकड़ा नीचे गिरकर 60 प्रतिशत पर आ गया है. यही कारण है कि हाल के वर्षों में पहली बार रेल मंत्री अब खुद अपने अधिकारियों से नियमित स्तर पर ट्रेनों के परिचालन का हिसाब-किताब ले रहे हैं. आइये, हम देखते हैं कि आखिर इस देश में ट्रेनों की इस लेट-लतीफी के पीछे कौन-कौन से प्रमुख कारण हैं - रेल रूटों पर ट्रेनों की बहुतायत हाल के वर्षों में देश में जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ यात्रियों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी देखने को मिली है, जिसकी वजह से अब रेलवे को एक ही गंतव्य के लिए अलग-अलग कई ट्रेनें चलानी पद रही हैं. इसकी वजह से रूटों पर ट्रेनों का बोझ बढ़ा है. इस कारण एक ही दिशा में जा रही एक से अधिक ट्रेनों को अपने आगे और पीछे चल रही ट्रेनों से विशेष दूरी बनाये रखनी पड़ती है, जिस कारण भी ट्रेनें लेट हो रही हैं. हालांकि, देश में कई रूटों पर रेलवे के पास यह व्यवस्था पहले से है कि एक साथ एक ही रूट पर एक ही दिशा में 3 ट्रेनें महज 1100 मीटर की दूरी बनाये रखकर भी एक समय पर चल सकती हैं मगर दुर्घटना की आशंका से रेलवे के अधिकारी आज भी एक ट्रेन को रोककर दूसरी ट्रेन को आगे बढ़ाने के विकल्प को वरीयता दे रहे हैं, जिसकी वजह से सही समय पर चल रही ट्रेन भी लेट होती है और उसे अपने पीछे चल रही ट्रेन को आगे निकलने के लिए स्टेशनों पर लम्बे समय तक रुकना पड़ता है. ट्रेनों की गति समयानुसार न होना जब रेलवे के रूट पर बोझ बढ़ता है तो ट्रेनों की गति बढाकर ट्रेनों को सही समय पर चलाया जाता है जिससे दूसरी ट्रेनों के लिए ट्रैक खाली मिलता है. आज भले ही देश में विभिन्न रूटों पर रेलवे के ट्रैक इतने सक्षम हैं कि उन पर 120 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से ट्रेनें चलायी जा सकती हैं मगर रेलवे की तरफ से न तो ट्रेनों को इस रफ्तार से चलाने की अनुमति दी गयी है और ना ही इन ट्रैकों का रख-रखाव सही तरीकों से किया जा रहा है. इस वजह से भी ट्रेनों को गति नहीं मिलती और ट्रेनें लेट हो रही हैं. अधूरे पड़े पुराने प्रोजेक्ट देश में कई दशकों से रेलवे सरकारों के लिए राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल होने वाला जरिया बन चुका था. पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से इस देश में गठबंधन की सरकारें थी जो विभिन्न पार्टियों के मोल-तोल के भरोसे चलती थीं और इन पार्टियों की जिद की वजह से अक्सर रेलवे जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय क्षेत्रीय दलों के पास रहता था. रेल मंत्री बनने वाले नेता इसका उपयोग अपने क्षेत्र पर ज्यादा कृपा दिखाकर करते थे या फिर सत्तासीन सरकार राज्यों के चुनावों के हिसाब से लोक-लुभावन घोषणायें करके इसका राजनीतिक फायदे के लिए उपयोग करती थी. हालांकि, इन घोषणाओं में कई ऐसी घोषणाएं भी थीं जो रेलवे के लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं लेकिन बहुमत न होने से सरकार गिरने या नयी सरकार आने पर रेल मंत्री बदले जाने की वजह से ये घोषणाएं ठंढे बस्ते में चली जाती थीं और इन पर काम या तो रोक दिया जाता था या फिर ये शुरू ही नहीं हो पाती थीं. इसके अलावा रेलवे को हो रहे घाटे और समय पर योजनायें पूरी न होने की वजह से इन योजनाओं की लागत साल दर साल बढती जाती थी, जिसकी वजह से भी तमाम योजनायें लटकी हुई हैं. इन विलंबित या अधूरे प्रोजेक्टों की वजह से आज भी देश का बहुत बड़ा भाग पटरियों के दोहरीकरण से महरूम है. जहां दोहरीकरण का काम हुआ भी है तो नदी-नालों पर पुलों के दोहरीकरण का काम बरसों से अटका पड़ा है, जिसकी वजह से दोहरीकरण का फायदा बेमानी हो गया है क्योंकि इन पुलों के न बनने से सही परिचालन नहीं हो पा रहा है. रेलवे के परिचालन में अपेक्षित सुधार न होने का एक बड़ा कारण ये भी हैं. रेल अधिकारियों का ढीला-ढाला रवैया आज रेलवे की जो हालत है उसका सबसे बड़ा कारण खुद रेलवे के अधिकारी और इनका रवैया है. इन लोगों ने रेलवे को आज भी ब्रिटिश हुकूमत के ज़माने का रेलवे बना रखा है. रेल अधिकारियों की वजह से आज भी स्टेशन मास्टर उसी पुराने सिस्टम पर काम करते दिखाई देते हैं जिस पर पुराने ज़माने में काम किया जाता था. समय के साथ इनमें बदलाव होना चाहिए था और इस एनालॉग सिस्टम की जगह डिजिटल सिस्टम लाया जाना चाहिए था मगर ऐसा नहीं हो पाया. स्टेशन पर ट्रेनों के आने के समय ये अधिकारी खुद इतने असमंजस में रहते हैं कि अक्सर ट्रेनों के प्लेटफ़ॉर्म बदल दिए जाते हैं. मसलन, घोषणा होती है कि अमुक ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म नंबर 3 पर आएगी लेकिन ऐन वक्त पर पता चलता है कि ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म नंबर 3 की जगह प्लेटफ़ॉर्म नंबर 4 या 5 पर आ जाती है. इसकी वजह से न सिर्फ यात्री परेशान होते हैं बल्कि कई दफा स्टेशनों पर हंगामा और भगदड़ मच चुकी है. ऐन वक्त पर ट्रेन का प्लेटफ़ॉर्म बदले जाने से मची भगदड़ में कई बार दर्जनों यात्री अपनी जान गंवा चुके हैं मगर फिर भी इन अधिकारियों का रवैया जस का तस ही है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो ये है कि ट्रेनों के सही समय पर चलाये जाने के जिम्मेदार ये अधिकारी कई बार सही समय पर चल रही ट्रेनों को भी अपनी लापरवाही की वजह से जगह-जगह रोककर लेट बना देते हैं और इसके अलावा कोई ट्रेन अगर थोड़ी लेट हो जाती है तो उसे फिर से सही समय पर लाने की बजाय जगह-जगह रोककर और ज्यादा लेट करते चले जाते हैं. रेलवे को सबसे पहले ट्रेनों को लेट करने वाले इन अधिकारियों की पहचान करनी होगी और उसके बाद ट्रेनों के लेट होने को लेकर इनकी जिम्मेदारी तय करनी होगी. तब जाकर इनमे ट्रेनों के सही परिचालन को लेकर अनुशासन और भय पैदा होगा. इसके बिना इनका रवैया वही पुराना रहेगा और लापरवाही की वजह से ट्रेनें यूं ही लेट होती रहेंगी. उपेक्षित क्षेत्रों का विकास देश की आजादी के 67 बरस बाद भी देश के कई राज्य और इलाके आज भी रेलवे के मामले में पिछड़े हुए हैं. यहां की बड़ी आबादी तक आज भी रेलवे अपनी पहुंच नहीं बना पाई है. अभी हाल ही में झारखंड के हजारीबाग में आजादी के 67 साल बाद पहली बार कोई ट्रेन चली. ये परियोजना भी बरसों के विलम्ब के बाद पूरी हुई है. रेलवे में अमूमन उसी क्षेत्र के विकास या ट्रेनों पर ध्यान दिया जाता है, जहां से रेलवे को सबसे ज्यादा आय होती है. इस सोच को बदलना होगा और देश के जिस क्षेत्र की भी ट्रेन हो, उसे अन्य क्षेत्रों की ट्रेनों की तरह ही समान वरीयता देनी होगी. अक्सर ऐसा होता है कि पिछड़े इलाकों से आने वाली ट्रेनों को कम वरीयता देते हुए उन्हें रोक दिया जाता है और ये ट्रेनें सही समय से चलने बावजूद रास्ते में लेट कर दी जाती हैं. ऐसे में यहां के यात्रियों के मन में टीस उठना स्वाभाविक है. देश के हर हिस्से के लोग सरकार को न सिर्फ कर देते हैं बल्कि झारखंड जैसे कई राज्य तो अपनी अकूत खनिज सम्पदा के बल पर देश के विकास में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं. ऐसे में इन क्षेत्रों की ट्रेनों के साथ भेद-भाव न हो, इसका ध्यान भी रेलवे को रखना चाहिए.


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