Monday, 30 December 2024, 10:26:43 pm

हंसी-हंसी पनवा खिलौले बेईमनवा

रिपोर्ट: चंचल सामाजिक कार्यकर्ता

बिहार ही था, जिसने जनतंत्र की नींव रखी. यह उत्सवधर्मी बिहार है. यह समाजवादियों की जमीन है और यहां पर अगली लड़ाई समाजवाद के अलग-अलग पैरोकारों के बीच में रची जा रही है. समाजवादी समाज के लिए प्रतिबद्ध हैं. लखन कहार अपने मड़हे में लेटे-लेटे आसिफ रोहतासवी की भोजपुरी कविता बांच रहे हैं. ऊपर आसमान में बादल है. तीन दिन से लगातार हो रही बारिश ने खेत में तैयार फसल को बरबाद कर दिया है. जो बची-खुची फसल थी, उसे ओले ने पीट कर बराबर कर दिया है. यह हाल है गांव का. पथराई आंख से लखन ने ऊपर आसमान को निहारा, लंबी सांस ली- सब गुड़ गोबर होय गवा. मुंह क निवाला छिन जाब मामूली तकलीफ ना देत! मुला किया का जाये? जब वही नाराज है तो.. लखन अपने से बतिया रहे थे कि बीच में लाल्साहेब ने टोक दिया, मौसम नाराज है चलो चौराहे पे चाय पी जाये और मन आन किया जाये. दोनों मन आन करने के लिए चौराहे की ओर चल दिये. चौराहे पर चाय की दूकान गुलजार है. दुख और तकलीफ में भी हंसने की कला किसान को अपने पुरखों से मिली है. सहनशक्ति के सहारे यह अन्नदाता सदियों से जीता आ रहा है. इसने वो भी जमाना देखा है, जब अपने सीमित साधनों और फाकामस्ती के दिनों में सड़े हुए लाल बाजरे और जोन्हरी पर एक जून खाकर तीन पीढ़ियों को पाला है, तब भी अपनी जमीन और जमीर को न तो गिरवी रखा, न ही उसे बेचा. खुद चना-चबैना पर दिन गुजारा, पर अन्न को भरपूर पानी देकर उसे जिंदा रखा. तब न बिजली थी, न खेती के लिए कोई मशीन. हल-बैल से खेती होती और पुरवट से सिंचाई. खाद जानवर के गोबर से बनते. अन्न और दूध का अपना स्वाद होता था. देश गुलाम रहा पंचो! पर किसान आजाद रहा. तब किसान बीज-खाद के लिए नहीं तरसता था.. जा रे जमाना! सब उलट-पलट हो गया. अब किसान गुलाम है और साहेब आजाद हैं. मशीन आयी. जानवर कट गये. पानी तक बिकने लगा. गोबर की खाद गायब, अंगरेजी खाद के लिए दर-दर भटको. ‘बिलेक’ ऊपर से. कल तक जो किसान अपने संसाधनों की बदौलत आजाद रहा, वह आज हाथ फैलाये घूम रहा है. कहो नवल कुछ गलत कहा? न्ना! कोछ भी गलत ना कहा, मुला जमाना भी तो देखो कहां से कहां गया. हम जमाने के साथ नहीं चलेंगे, तो पीछे छूट जायंेगे, का समङो? सब समझ गये. नयी खबर सुने? बिहार में चुनाव होये वाला है. बताव लखन भाई, केकर सरकार बनी? लखन मुस्कुराये- खरी-खरी बोलूं? तो बिहार में जनता की सरकार बनेगी. कीन उपाधिया भाजपा के स्वनिर्मित प्रचारक हैं. अखबार बांचते हैं, उसमें से काम की निकाल कर उसका प्रचार करते हैं, पर दिल्ली चुनाव के नतीजे ने उन्हें ढीला कर दिया है. चौराहे के सारे अड्डेबाज राजनीतिक लोग अलग-अलग पार्टियों के हैं, लेकिन कीन को देखते ही सब एक हो जाते हैं. कीन पूंछ दबा के बैठे रहते हैं और आखिर में एक ही बात बोलते हैं- बकबकाय लो, दिल्ली की सरकार हमारी ही है. जैसे देश में जीते, वैसे बिहार भी जीतेंगे. कह कर गमछे से मुंह साफ करें, उसके पहले ही चिखुरी ने कीन को घुड़का.. कीन! काठ की हांड़ी दुबारा नहीं चढ़ती, समङो. सारा खेल जनता समझ चुकी है. हवाई जहाज से घूम-घूम कर किराये पर लायी गयी भीड़ को रिझाना, अनाप-सनाप बोलना, सब जनता ने ङोल लिया है. सारे आरोप जो तुमने कांग्रेस पे लगाये, अब गलत साबित हो रहे हैं. जो भी वायदे किये सब से मुकर रहे हो. कहते हो यह तो जुमला था! और जब हम तुम्हारी हकीकत उघार करेंगे, तो तिलमिलाते हो. बच्चूं! बिहार की माटी में जनतंत्र और आजादी सना पड़ा है. दुनिया के सामने बिहार ही था, जिसने जनतंत्र की नींव रखी. यह उत्सवधर्मी बिहार है. यह समाजवादियों की जमीन है और यहां पर अगली लड़ाई समाजवाद के अलग-अलग पैरोकारों के बीच में रची जा रही है. दिमाग खोल कर जान लो, समाजवादी समाज के लिए प्रतिबद्ध हैं. एक ही घर से निकले अपने समाजवादी अलग-अलग जातियों के चौधरी लोग अब फिर एकजुट हो रहे हैं. कुछ लोगों और जातियों का जोड़ समाजवाद नहीं है, लेकिन यह बिहार में है. साम्यवादी अपनी दूकान उठा चुके हैं. क्योंकि बिहार या हिंदी पट्टी अकड़ की राजनीति नहीं पचा पाता, वह सहज मन का मालिक है. बापू की दी गयी खुदमुख्तारी को ओढ़ता-बिछाता है. उसका मन उदार है, बंबई में मार खा लेगा, लेकिन अपने सहज धर्म समरसता का त्याग नहीं करता. का बंगाली, का मराठी, का सिंधी, सब को उचित मौका दिया है. मधु लिमये, जार्ज फर्नाडिस, आचार्य कृपलानी, शरद यादव, सब इसी जमीन से उठे हैं. कल की बात कल, लेकिन तुम तो आगे बढ़ो कीन महराज. देश आगे जा रहा है, उसे पीछे मत ले जाओ. समङो! ये नहीं समङोंगे, इन्हें जनता समझा देगी. आप इजाजत दें तो हम इन्हें समझा दें, कह कर नवल उपाधिया ने कीन को देखा. लोग हंस दिये. नवल गाते हुए आगे निकल गये.. हंसी-हंसी पनवा खिलौले बेईमनवा..


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