काशी हिंदू विश्वविद्यालय पंडित मदनमोहन मालवीय का ऐसा सपना था, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। उनके पास इतना धन नहीं था कि इसे साकार रूप दे सकें। अत: उन्होंने बिना संकोच किए दान इकट्ठा किया और विश्वविद्यालय की स्थापना की। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद उसका उत्तम रीति से संचालन हो, इसकी भी व्यवस्था महामना ने बखूबी की थी। विश्वविद्यालय से संबंधित कोई भी बात उनसे छिपी नहीं रहती थी और वे निरंतर वहां की व्यवस्था दुरुस्त करते रहते थे। एक बार हॉलैंड से कुछ शिक्षाविद् विश्वविद्यालय देखने आए, क्योंकि इसकी चर्चा विदेशों में भी थी। मालवीयजी ने स्वयं उनका सत्कार किया और पूरा विश्वविद्यालय घुमा-फिराकर दिखाया। वहां होने वाली गतिविधियों की जानकारी उन लोगों को दी। मात्र एक इंजीनियरिंग कॉलेज वे नहीं दिखा पाए, क्योंकि उन्हें एक मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए बाहर जाना था। अत: उन्होंने प्रोफेसर शेषाद्रि से इन लोगों को इंजीनियरिंग कॉलेज दिखाने को कहा। प्रो. शेषाद्रि ने कहा, ‘कॉलेज तो शायद अब तक बंद हो गया होगा।’ पं. मालवीय बोले, ‘कोई बात नहीं, वहां कोई चपरासी तो होगा।’ प्रो. शेषाद्रि ने पुन: शंका प्रकट की, ‘चपरासी भी शायद ही इस समय तक मौजूद हो।’ तब मालवीयजी ने आग्रह किया, ‘फिर भी आप इन लोगों को ले जाइए। ये लोग बंद दरवाजों में लगे कांचों से ही झांककर देख लेंगे।’ मालवीयजी की ये बात सुनकर उनमें से एक व्यक्ति ने कहा, ‘अब मेरी समझ में आया कि इतने बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण किस प्रकार हुआ है। उच्च कोटि के काम के लिए उच्च कोटि के समर्पण की आवश्यकता होती है। काम के प्रति ऐसा समर्पण ही गर्व योग्य उपलब्धियां दिलाता है।