जम्मू में रहने वाली रम्पी मदान उस वक्त सुर्खियों में आईं, जब गलियों में अनाथ घूमने वाले कुत्तों को नगर निगम ने जहर देने की योजना बनाई। रम्पी मदान पूरे दल बल के साथ सड़कों पर उतरीं और उन सभी को गोद लेकर पुनर्वास की पेशकश की। वह मानती हैं कि पशु भी हमारे समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन्हें हमारे प्यार और देखभाल की जरूरत है। पशुओं की सेवा में तन-मन-धन से जुटी रम्पी मदान से खास मुलाकात के अंश परिवार से मिली प्यार की सीख मेरा जन्म और परवरिश जम्मू में ही हुई है। खुशकिस्मती से इतना बड़ा परिवार मिला कि हर रिश्ते को नजदीक से महसूस किया। मैं गर्व से कहती हूं कि हमारी एक नहीं दो-दो दादी मां थीं। पापा की चाचीजी, जो कम उम्र में ही विधवा हो गईं थीं उनका भी आशीर्वाद हम चारों बहनों और दोनों चचेरे भाइयों को मिला। संयुक्त परिवार में जो संस्कार सीखे उन्हीं में से एक है पर्यावारण से प्यार करना। दादी ने दिए संस्कार मेरी दादी मां कहती थीं कि हम सबमें ईश्वर का वास है। प्रकृति के संरक्षण की जिम्मेदारी हम इंसानों पर है। कोई भी चीज बेकार नहीं जाने देनी चाहिए। लोग तो खाना फेंक देते हैं, पर वह कभी छिलके भी नहीं फेंकने देती थीं। मैं बचपन में कागज पर सब्जियों के छिलके इकट्ठे कर गाय को डालने जाया करती थी। बस वहीं से पशुओं से पहचान बढ़ती गई और संवेदनशीलता भी। थोड़ी बड़ी हुई तो बैग में बिस्कुट रखने लगी। कॉलेज टाइम में भी घर से निकलते वक्त बिस्कुट और दूध साथ लेकर निकलती थी। रास्ते में बिल्लियों और कुत्तों के लिए दूध-बिस्कुट परोसती जाती। शौक जो आदत में आ गया वर्ष 1986 में आर्मी ऑफिसर से शादी हुई। खूब समय था, घर में नौकर-चाकर भी थे। बस मेरा शौक परवान चढ़ने लगा। मैंने बड़े-बड़े पतीलों में इन लावारिस कुत्ते-बिल्लियों के लिए खाना पकवाना शुरू कर दिया। पहले घर के आसपास वालों को सर्व करती फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। इन बेजुबानों की यह खासियत होती है कि एक बार आपसे जुड़ जाएं तो फिर हर रोज उसी समय, उसी जगह पर आपका इंतजार करते हैं। उनका यह मोह मैं छोड़ नहीं पाती और इस तरह मेरा परिवार लगातार बढ़ता जा रहा है। पिछले बीस साल से यही कर रही हूं। जयपुर, जोधपुर, देहरादून, जम्मू जहां भी रही यह आदत नहीं छोड़ी। जिस तरह हर शहर में लोग अपने हो जाते हैं, मैं कह सकती हूं कि हर शहर की हर गली के बेजुबान मुझे पहचानने लगे थे। भरा पूरा है परिवार रम्पी के घर पर कई छोटे पप्पी (पिल्ले) हैं। इनमें से एक की टांग भी टूटी है, जिसे रम्पी नन्हें बच्चे की तरह संभालती हैं। उनके घर के पीछे के लॉन में चार कुत्तों का डेरा है और आगे वाले में दो और का। दो बड़े-बड़े कुत्तों ने गेट के बाहर अपना मोर्चा संभाला है। वह कहती हैं, ‘ये मेरे बच्चे हैं, दोस्त हैं, घर के रखवाले हैं। आप इन्हें थोड़ा प्यार, थोड़ी सी देखभाल देकर तो देखिए ये आपको उसका दस गुना लौटाएंगे।’ यह तो घरेलू माहौल है। उन्होंने जम्मू शहर में ही इन लावारिस पशुओं के लिए एक शेल्टर होम किराए पर ले रखा है। जहां फिलहाल सोलह छोटे-बड़े कुत्ते हैं। भैंस एक छोटा बच्चा भी यहां है। जिसे बीमार पड़ने के कारण किसी ने कचरे पर फेंक दिया था। इनकी तीमारदारी के लिए बकायदा स्टाफ नियुक्त किया गया है। जारी है रिहाई रिहाई के नाम से रम्पी ने राज्य के स्कूलों में एक जागरूकता अभियान चला रखा है। जिसमें बच्चों और शिक्षकों को पशुओं के बारे में जागरूक किया जाता हैं। वह बताती हैं कि थोड़े से खर्च में आप किसी लावारिस को जिंदगी दे सकते हैं। इसके अलावा हम उन कॉस्मेटिक्स, लेदर, वूल आदि के बारे में जानकारी देते हैं जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दुष्प्रभाव पशुओं पर होता है। ताकि वे इनका इस्तेमाल न करें। छोटी सी है गुजारिश जब भी आप अपने आसपास बढ़ते लावारिस पशुओं से परेशान हो जाते हैं तो झट से नगर निगम को फोन कर देते हैं और निगम कर्मी या तो उन्हें जहर देकर बूचड़खानों में डाल देते हैं या फिर बेहोश कर दूर जंगलों में जंगली जानवरों का आहार बनने के लिए डाल देते हैं। निश्चित रूप से दोनों ही मौतें दर्दनाक होती हैं। रम्पी इसके लिए सुझाव देती हैं। वह कहती हैं, ‘अगर आसपास कुत्तों की संख्या ज्यादा हो गई है तो आप इनका बर्थ कंट्रोल करवाएं। इससे इनकी तादाद बढ़नी कम हो जाएगी। एक कुत्ते का स्टेरेलाइजेशन 32 से 40 कुत्तों को जन्म लेने से रोकता है। इसमें खर्च भी अधिक नहीं आता। अगर हम हजारों रुपये के कपड़े और जूते खरीद सकते हैं तो हम मानवता की राह में इतना तो कर ही सकते हैं। आपकी छोटी सी कोशिश कई लावारिसों की जिंदगी बचाएगी। अगर आप पाप होते देखकर चुप रहते हैं तो आप भी पाप में आधे के भागीदार बन जाते हैं।’ याद करें पुरानी आदतें सर्दियों में ज्यादातर पशु ठंड लगने से और गर्मियों में प्यास से मरते हैं। ज्यादातर कुत्तों के पागल होने की वजह भी गर्मी ही होती है। तेज धूप उनके शरीर में खुजली को बढ़ाती हैं, जिससे परेशान होकर वे पागल हो लोगों को काटने दौड़ पड़ते हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने आसपास पानी का इंतजाम रखें। जैसे पहले घरों के बाहर हौदियां बनी होती थीं, वे पशुओं के बहुत काम आती थीं। ठीक इसी तरह सर्दियों में फटे-पुराने कंबल आदि लावारिस कुत्तों पर डाल सकते हैं। आसपास भी है खूबसूरती हमने अपने एनजीओ की मार्फत एक योजना बनाई है कि कुत्तों और बिल्लियों का स्थानीय स्तर पर ही पुनर्वास हो। मैं यकीन दिलाती हूं कि स्ट्रीट डॉग भी उतना ही खूबसूरत और वफादार होता है, जितना मोटी रकम देकर खरीदा गया विदेशी नस्ल का कुत्ता। घर में रखने से पहले इनका स्टेरेलाइजेशन करवाएं, कुछ दवाएं हैं जिन्हें आप इन्हें खिला सकते हैं। ताकि किसी तरह के इन्फेक्शन की संभावना खत्म हो जाए। घर का साधारण खाना भी इनके लिए अच्छा होता है। अक्सर मीट की दुकानों के बाहर खड़े रहने वाले कुत्ते मीट के अलावा कुछ नहीं खाते। चाहें भूखा रहना पड़े, लेकिन दही ये भी शौक से खाते हैं तो शुरूआत यहीं से सही। फिर उसके बाद आप इन्हें सब्जियों या सोयाबीन का सूप दे सकते हैं। आप दो-तीन दिन के लिए भी इकट्ठा बनाकर फ्रिज में रख सकते हैं। कुत्तों को दूध में भीगी रोटी और उबले अंडे भी पसंद होते हैं। परवाह नहीं चुनौतियों की सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक स्वीकृति की है। ज्यादातर लोग इसे फालतू समझते हैं। पहले तो वे हमें सीरियसली ही नहीं लेते। फिर जब दस्तावेज आदि दिखाकर दबाव बनाएं तब सुनना शुरू करते हैं। कई बार कानून तो कई बार धर्म का डर दिखाना पड़ता है। आर्थिक समस्याएं तो आती ही रहती हैं। शेल्टर होम का किराया, हर रोज की फीड और दवाई आदि का खर्च। फिर भी दोस्तों की मदद और दुआओं से सब हल हो रहा है। पैसा साधन है संतोष नहीं रम्पी को धन की कभी कोई कमी नहीं रही। फिर भी आत्मनिर्भर होने के लिए उन्होंने चौदह वर्ष तक अपना बुटीक चलाया, पर वह कहती हैं, ‘पैसा कमाने में सेवा करने जैसा सुख नहीं है। मैं अपने इन बेजुबान वफादार दोस्तों के साथ बहुत खुश हूं और इन्हीं को पूरा समय देना चाहती हूं। इनका हक दिलवाना एक लंबी लड़ाई है। जिसके लिए मैं कमर कस चुकी हूं।’ और भी हैं ख्वाहिशें मुझे लगता है कि मैंने अपना बेस्ट दिया है। शायद कभी भूल से कोई कमी रह गई होगी, लेकिन मुझे इन बेजुबान दोस्तों ने भरपूर प्यार दिया। मैं एक ऐसे पुनर्वास केंद्र की योजना मुकम्मल होते देखना चाहती हूं जहां पशुओं की सारी समस्याओं का हल हो। अधिकांश पशु चिकित्सालयों में नाम मात्र की सुविधाएं होती हैं। कई जरूरी टेस्ट करने वाली मशीनें ही नहीं हैं। इंजेक्शन वगैरह लगाते वक्त भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जबकि इन्हें सिर्फ प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है।