भाजपा में नरेंद्र मोदी व संजय जोशी की स्थिति ऐसे दो तलवारों की तरह है जो एक समय, एक साथ एक मयान रूपी भाजपा में नहीं रह सकते. नरेंद्र मोदी के एकछत्र वर्चस्व वाली भाजपा में तो संजय जोशी के लिए जगह कतई बचती ही नहीं. छह अप्रैल को जो भाजपा के साथ साथ संजय जोशी का भी जन्म दिन है, उस दिन नरेंद्र मोदी कैबिनेट के तीन मंत्रियों द्वारा संजय जोशी को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से बधाई देना मात्र महंगा पडा. मोदी के सिपहसलार व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तीनों मंत्रियों को फटकार लगायी और भविष्य में ऐसा नहीं करने की हिदायत दी. कहते हैं नरेंद्र मोदी को ऐसे आयोजनों में शिरकत करने से भी परहेज रहा है, जहां संजय जोशी की छाया भी पड जाये. ताजा विवाद फिर संजय जोशी के समर्थन में लालकृष्ण आडवाणी के घर के बाहर सहित कई अन्य जगहों पर पोस्टर लगने से शुरू हुआ है. यह पोस्टर प्रसंग समय समय पर सामने आता रहता है. राजकोट में एक बार गुजरात भाजपा की कार्यकारिणी के दौरान जोशी समर्थक उनका मुखौटा लगाकर पहुंच गये थे. ऐसे में सहज सवाल उठता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इन दो प्रखर प्रचारकों, जबरदस्त संगठनकर्ता, कुशल रणनीतिकार के बीच इस खाई का कारण किया है और इस खाई का निर्माण कब और कैसे शुरू हुआ? अस्सी का दशक और गुजरात भाजपा भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जब जब यह जरूरत महसूस होती है कि उसके सहयोगी संगठनों को मजबूती प्रदान करने के लिए, उसमें मजबूत शख्स भेजे जायें, वह ऐसा करता है. 80 के दशक में जब भाजपा का सांगठनिक ताना बाना गुजरात में कमजोर था और वहां कांग्रेस व जनता दल का वर्चस्व था, तब संघ ने कुछ समय अंतराल पर अपने दो प्रचारकों को गुजरात में भाजपा को मजबूत करने के लिए भेजा. 1985 में संघ ने नरेंद्र मोदी को गुजरात भाजपा में संगठन सचिव बना कर भेजा, उसके तीन वर्ष बाद मैकेनिकल इंजीनियर और लेक्चरर से संघ के प्रचारक बने संजय जोशी को गुजरात भाजपा में भेजा गया. जोशी सचिव बनाये गये. मोदी और जोशी दोनों कार्यकुशल थे. उन्होंने पार्टी की जडें राज्य में गहरी करना शुरू की. इन दोनों की मेहनत का नतीजा था कि गुजरात में भाजपा इस स्थिति में आ गयी कि 1990 में जनता दल को सरकार बनाने के लिए भाजपा की जरूरत तलब हो गयी यानी राज्य में कांग्रेस, जनता दल के बाद भाजपा तीसरी ताकत बन गयी. राज्य की राजनीति त्रिकोणीय हो गयी और इसके महज पांच साल 1995 में भाजपा की जीत व केशुभाई पटेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद वहां की राजनीति भाजपा बनाम कांग्रेस की हो गयी. संगठन में काम करने के दौरान ही वर्चस्व का संघर्ष कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी और संजय जोशी के बीच संगठन में काम करने के दौरान ही वर्चस्व के लिए संघर्ष शुरू हो गया. दो ऐसे शख्स जिसमें एक प्रतिभाशली और एक औसत हो तो कशमकश की संभावना काफी कम होती है, लेकिन दोनों जब प्रखर हों तो इसकी संभावना बढ जाती है. मोदी व जोशी के मामले में भी ऐसा ही हुआ. 1990 में जिस साल गुजरात में पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया, उसी साल के अंत में नरेंद्र मोदी का स्थानंतरण दिल्ली राष्ट्रीय सचिव के रूप में कर दिया गया. यह प्रदर्शन नरेंद्र मोदी व संजय जोशी की साझा मेहनत का फल थी. लेकिन राजनीतिक हलकों में यह कहा जाता है नरेंद्र मोदी को अपना यह स्थानांतरण मेहनत का पुरस्कार नहीं सजा लगा और उनकी यह धारणा बनी कि उनके साथ ऐसा बर्ताव संजय जोशी के कारण हुआ, ताकि राज्य के सांगठनिक ढांचे में उनका इकलौता वर्चस्व हो जाये. ध्यान रहे कि ये दोनों उस समय पार्टी संगठन के आदमी थे, न कि चेहरा. चेहरा तो केशुभाई पटेल, शंकर सिंह बाघेला ही थे. केंद्र में सचिव के रूप में मोदी को आरंभ में राजनीतिक दृष्टिकोण से दो छोटे राज्यों हिमाचल प्रदेश व हरियाणा का प्रभार दिया गया, जहां उन्होंने बेहतर काम किया. इसी दौरान उन्होंने 1990 की लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के लिए और 1991 व 1992 में डॉ मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा के लिए बेहतरीन रणनीति तैयार की, जिससे संगठन में उनकी हैसियत व साख बढी. फिर केंद्र में जोशी, राज्य में मोदी नरेंद्र मोदी व संजय जोशी के बीच स्थिति यह थी वे एक समय में अहमदाबाद-गांधीनगर में या नयी दिल्ली में नहीं रह सकते. उस समय पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व डॉ मुरली जोशी इस बात को समझते थे. इसलिए 2001 में जब नरेंद्र मोदी को वाजपेयी जी ने गुजरात का मुख्यमंत्री बना कर गांधीनगर भेजा, उसके बाद संजय जोशी को पार्टी ने केंद्र में बुला लिया. संजय जोशी 2001 में पार्टी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनाये गये. भाजपा के सांगठनिक ताने बाने में अध्यक्ष व संगठन मंत्री ही सबसे ताकतवर पद होते हैं. जोशी ने अपने पांच सालों के कार्यकाल में पांच राज्यों में पार्टी की जीत दिलायी. ये राज्य हैं हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ, झारखंड व मध्यप्रदेश. 2005 में एक सेक्स सीडी के कारण जोशी को पद छोडना पडा. ध्यान रहे कि जोशी ही वे शख्स थे जिन्होंने संगठन मंत्री के रूप में जिन्ना पर बयान देने के कारण आडवाणी से इस्तीफा ले लिया था. उधर, मोदी को गुजरात में केशुभाई पटेल शासन के दौरान हालात बेकाबू होने के कारण ही प्रदेश भेजा गया था. इसी दौरान गोधरा कांड हो गया, जिसके बाद गुजरात में दंगा भडका और वाजपेयी जी अपने प्रिय पात्र रहे नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पाठ पढाने लगे. यहां तक कि उन्होंने मोदी को पद से हटाने का फैसला भी कर लिया था, जिससे उन्हें आडवाणी ने रोका. राष्ट्रीय राजनीति में नितिन गडकरी का उदय और मोदी से तकरात संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 2009 की लोकसभा चुनाव की हार के बाद अपने ऑपरेशन डी 4 के तहत आश्चर्यजनक रूप से राजनीतिक रूप से काफी जूनियर शख्स नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया. उस समय राजनाथ सिंह का दो कार्यकाल पूरा हो चुका था और उनका विकल्प संघ परिवार को चुनना था. संघ प्रमुख ने यह संकेत दे दिया था कि वे राजनाथ सिंह के विकल्प के रूप में दिल्ली के चार बडे नेताओं में से किसी को नहीं चुन सकते. डी 4 के ये नेता थे, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनंत कुमार. बहरहाल, नितिन गडकरी जब अध्यक्ष बने तो उन्होंने संजय जोशी को फिर सक्रिय किया. संजय जोशी उस समय तक 2005 के सैक्स सीडी के कारण राजनीतिक बियाबान में थे. गडकरी ने 2012 के उत्तरप्रदेश चुनाव में संयज जोशी को संयोजक बनाया. कहा जाता है कि मोदी को यह नहीं सुहाया और वे उत्तरप्रदेश झांकने तक नहीं गये. गडकरी के अध्यक्ष रहते मोदी से उनके संबंध अनुकूल नहीं रहे. नरेंद्र मोदी एकमात्र मुख्यमंत्री थे, जो गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद उनसे लोकाचार मुलाकात करने व शुभकामनाएं देने दिल्ली नहीं पहुंचे और गडकरी ने ही पार्टी के बाकी मुख्यमंत्री के जैसा ही नरेंद्र मोदी को भी बताया था. इसी साल के अंत में हुए मुंबई कार्यकारिणी ने पार्टी के सामने एक कडी शर्त रख दी कि वे तभी इसमें शामिल होंगे जब संगठन से संजय जोशी इस्तीफा दे देंगे और ऐसा ही हुआ. वे एक बार फिर राजनीतिक बियाबान में चले गये, पर यह सच है कि संगठन में उनके शुभचिंतकों की लंबी कतार है, जिसमें बहुत सारे आज की तारीख में प्रत्यक्ष रूप से नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से उनके प्रति सम्मान व श्रद्धा प्रकट करते रहते हैं और उनका मार्गदर्शन भी लेते हैं. ध्यान रहे जोशी ने पिछले दिनों लखनउ में मोदी के स्वच्छता अभियान के तहत झाडू लगाकर सद्भावना का परिचय दिया था.