बिहार बोर्ड परीक्षा में नकल का मामला : बस! अधूरी तसवीर दिखा रहा है देसी-विदेशी मीडिया

रिपोर्ट: साभार

पटना : बिहार में दसवीं बोर्ड की परीक्षा में नकल की खबर राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बन गयी है. इस एक खबर ने बिहार की प्रतिभा और प्रतिष्ठा दोनों को आघात पहुंचाया है. शायद इसलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि पर्चा लिक होने से संबंधी जो खबरें मीडिया में आ रही हैं, वह राज्य की अधूरी तसवीर को ही दिखाता है. देश के बडे मीडिया संस्थान ही नहीं दुनिया भर में अपनी पत्रकारिता के लिए खास पहचाने रखने वाले सीएनएन ने भी बिहार की दसवीं की परीक्षा में नकल करने की खबर को कवर किया है. इस तरह से खुलेआम की नकल का किसी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता. सबसे पहले तो यह अभिभावकों को ही समझना होगा कि अपने बच्चों को इस तरह डिग्रियां दिला कर वे क्या पा लेंगे. जब कि आज हर तरह की नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा होती है. सीएनएन ने इस नकल के बहाने बिहार के साथ पूरे हिंदुस्तान में भी शिक्षा की पिछडी स्थिति की तसवीर खिंचने की कोशिश की है और भारत के प्रतिद्वंद्वी चीन से उसकी तुलना की है. उधर, नीतीश कुमार ने कहा है कि बिहार सरकार के काम की छवि महज इन तसवीरों से नहीं बल्कि पूरी प्रक्रिया को सुचारू ढंग से लागू करने के आधार पर आंकी जानी चाहिए. बिहार के बहाने सीएनएन ने ने लिखा है कि भारत में अभी 74 प्रतिशत साक्षरता दर है, जबकि चीन में यह 95 प्रतिशत है. यहां तक की महिलाओं की साक्षरता दर तो और कम मात्र 64 प्रतिशत ही है. सीएनएन ने अपनी खबर में यह भी बताया है कि कैसे परीक्षा में 760 छात्रों को एक्सपेल्ड किया गया है और आठ पुलिस वालों को भी नकल कराने में मदद करने के आरोप में गिरफ्तार किया है. इस मामले को अदालत द्वारा संज्ञान लेने का भी उल्लेख किया गया है. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या यही बिहार की असली तसवीर है, जिसके बारे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसे अधूरी तसवीर कह कर आगाह कर रहे हैं. बिहार के शिक्षा मंत्री पीके शाही ने भी अपनी पीडा व्यक्त की है. उन्होंने कहा है कि नकल रोकना एक सामूहिक जिम्मेवारी है. अभिभावक, समाज और बच्चों के सहयोगपूर्ण रवैये से ही नकल को रोका जा सकता है. दिलचस्प यह भी है कि अकेले बिहार में ही नकल नहीं होती है. दूसरे राज्यों में भी नकल होती है, लेकिन बिहार एक पिछडा व गरीब राज्य है, इसलिए उसकी ऐसी खबरों का देसी विदेशी मीडिया के लिए न्यूज वैल्यू अधिक है. देश, विदेश की मीडिया को इस विषय पर भी खबर करनी चाहिए कि पश्चिमी राज्यों में किस तरह बीएड की डिग्रियां मिलती हैं और डेढ दो हजार किमी दूर स्थित कंडिडेट बिना कभी क्लास में उपस्थित हुए 70 प्रतिशत की उपस्थित के साथ प्रथम श्रेणी से डिग्री हासिल कर लेता है या फिर दक्षिण भारतीय राज्यों में किस तरह से इंजीनियरिंग की डिग्री मिलती है, जो मैकेनिक की नौकरी दिलाने में भी काम नहीं आती है. इन विश्वविद्यालयों के एजेंट आपको देश के हर शहर में मिल जायेंगे. वहीं, बिहार के छात्र पूरे देश के हर प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान में अनुपातिक रूप से अधिक संख्या में हैं और देश के बौद्धिक वर्ग व आकादमिक दुनिया में इसके लिए बिहार का सम्मान है. बिहार की दूसरी तसवीर भी दिखाये मीडिया बिहार की एक दूसरी तसवीर है, जो कहीं अधिक धवल है. गैरेज में जहां सांस लेने के लिए वेंटेलीटर भी न हो वहां पढते और टॉप करते बच्चे. सुपर 30 में पढने वाले मजदूरों गरीबों के बच्चे, जिन्होंने पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनायी. भोजपुरी भाषी व कोसी क्षेत्र की दुरूह परिस्थिति में भी पढते बच्चे, जिनकी बडी संख्या देश के बडे विश्वविद्यालयों जेएनयू, डीयू, बीएचयू, इलहाबाद विश्वविद्यालय में आप साफ तौर पर महसूस कर सकते हैं. सीएजी की रिपोर्ट में भी यह तथ्य सामने आया है कि बिहार, उत्तरप्रदेश के ही सर्वाधिक छात्र जेएनयू में नामांकन पाते हैं. कम से कम वहां तो नकल नहीं होती, कठिन प्रतियोगिता परीक्षा उत्तीर्ण करने पर ही प्रवेश मिलता है. वहां प्रवेश के लिए औसतन दस हजार फॉर्म डाले जाते हैं, जिसमें मात्र एक हजार ही देश के 15 से 20 दूसरे राज्यों के होते हैं, जबकि अधिकतर बिहार व उत्तरप्रदेश के होते हैं. यह बिहार के छात्रों की पढाई के लिए स्वाभाविक ललक है या यह ललक भी चोरी है, यह तो कोई बताये?


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