इस होली पर अपने रंग में रंगिये

रिपोर्ट: कुमार प्रशांत वरिष्ठ पत्रकार

गांव-टोले के सारे नकारा शोहदे होली के बादशाह होते थे. कभी किसी दिन भी जो ड्योढ़ी पर आने की हिम्मत नहीं करते थे, उनका होली में ड्योढ़ी पर इंतजार होता था. ड्योढ़ी पर बिंदास पहुंच जाने का उनके लिए यह मौका होता था. कोई यह मौका चूके क्यों! देर रात में होली के हुलियारे बड़े दरवाजों पर होली गाने पहुंचते थे. ये हुलियारे जरूर गुलाल वगैरह लगाये रहते थे और ताड़ी वगैरह भी मना कहां थी! होली आ गयी है. आयेगी ही, क्योंकि अब तक उसका आना सलामत है. हर नये कैलेंडर के साथ यह हर साल आती है. लेकिन अब वे रास्ते किसे पता हैं, जिनसे चल कर यह आती है? जब बहुत सारे रास्ते खो गये हों, कई सारे बंद पड़े हों और नये रास्ते खोजने-बनाने की फुर्सत भी न हो तब एक इसी होली पर हम अपनी सारी अपेक्षाओं का भार डालें, यह भी तो उचित नहीं है. होली पहले मन में उमगती थी फिर खेतों-खलिहानों से होती हुई घरों तक पहुंचती थी. सड़कें तो तब थीं भी कितनी! लेकिन जितनी भी, जहां भी थीं वहां होली सबसे अंत में पहुंचती थी. भले घरों में कहते थे कि सड़कों पर हुड़दंग होता है, घरों में होली होती है. अब वे घर रह गये क्या? हम भी पूछते हैं और होली भी पूछती है- हमारा घर कहां है? हमारी परंपरा में प्राय: हर त्योहार गाया जाता है. त्योहार आते थे तो ढोल-मजीरे के साथ आते थे. होली गायी जाती थी और आप कैसे हैं, इसका एक बड़ा परिचय इससे ही होता था कि होली में आप क्या गाते हैं. वैसे होली में सब तरह की छूट भी होती थी-फूहड़ भी और कुछ ऐसा-वैसा भी गा लिया तो होली की माफी मिल जाती थी. गांव-टोले के सारे नकारा शोहदे होली के बादशाह होते थे. कभी किसी दिन भी जो ड्योढ़ी पर आ जाने की हिम्मत नहीं करते थे, उनका होली में ड्योढ़ी पर इंतजार होता था. न आएं तो शिकायत भी होती थी. लेकिन, यह भी तो था कि ड्योढ़ी पर बिंदास पहुंच जाने का उनके लिए यह मौका होता था. कोई यह मौका चूके क्यों! देर रात में होली के हुलियारे बड़े दरवाजों पर होली गाने पहुंचते थे. पेट्रोमैक्स सबसे आगे होता था, जिसका मेंटल अधिकांशत: टूटा होता था तो वह रोशनी भी देता था और लपटें भी मारता था. हम कितनी-कितनी देर तक अपनी नींद से लड़ते हुए होली के हुलियारों का इंतजार करते थे कि कहीं ऐसा न हो कि वे आएं और हम न आएं! होली से पहले कोई रंग-गुलाल नहीं होता था. ये हुलियारे जरूर गुलाल वगैरह लगाये रहते थे और ताड़ी वगैरह भी मना कहां थी! तो रंग-राग-गान-सरूर और संगत सबका मेल होता था, तब होली होती थी. फिर रंग किधर है, गुलाल किधर, पिचकारी है कि कुछ दूसरा, कोई नहीं पूछता था. सबसे अच्छा तो था कि अपनी दोनों हथेलियों में रंग मला और किसी के गाल लाल कर दिये! तब का अकबराबाद और आज का आगरा और आगरे का मुहल्ला ताजगंज! यहीं रहते थे मियां नजीर! होली को जैसी इज्जत बक्शी नजीर साहब ने वैसी तो कभी वसंत को भी नसीब नहीं हुई. नजीर वेदांती थे - सूफी परंपरा के संत-कवि! आगरा के लड़के नजीर के दीवाने और नजीर इन लड़कों पर सौ जान कुर्बान! यह सब कुछ ऐसा रंग जमा गया कि होली में नजीर को गाती टोलियां अकबराबाद की पहचान बन गयी. और फिर जो दिन सबका आता है, वही नजीर साहब का भी आया कि अल्लाह ने उन्हें अपने यहां गाने को बुला लिया. वहीं अकबराबाद में उनका सुपुर्दे-खाक हुआ और तब से ही यह रवायत चली कि अकबराबाद की होली उनकी कब्र पर जुड़ती थी. रतजगा होता था और सब मिल कर नजीर की होली गाते-झूमते थे- जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की. औ एक तरफ दिल लेने को महबूब गवैयों के लड़के हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-बढ़ के कुछ बढ़-बढ़ के कुछ नाज जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गांवें अड़-अड़ के कुछ लचके शोख कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फड़के कुछ काफिर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की. एक लंबे अरसे तक यह परंपरा चली कि अकबराबाद के हुलियारे होली में नजीर की कब्र पर जमा होते थे और होली गायी जाती थी. यह मेला लंबे अरसे तक चला और फिर काल के गाल में समा गया. अब न नजीर रहे, न अकबराबाद रहा, न हुलियारे रहे और न होली रही! यह सारा कुछ याद ही इसलिए आ रहा है कि होली आ गयी है! आज भी रंग बिकता है, घुलता है. मैं भी कल ही खरीद कर लाया हूं गुलाल! नहीं खरीदता था कि अब गुलाल भी पता नहीं कैसे रसायनों से बनाये जाने लगे हैं कि चमड़ी पर चिपकते हैं, जलते हैं. यह खरीदा कि बता रहे हैं कि यह ऑर्गेनिक गुलाल है यानी प्राकृतिक रंगों से तैयार किया गया है. गुलाल तो गुलाल है, रंगों का हाल तो इससे भी बुरा है. उनमें सबकुछ होता है, रंग नहीं होता. इसलिए न रंग चढ़ता है, न दमकता है. और फिर यहां मुंबई में तो रंग में यह भी भंग है कि पानी की किल्लत है. नगरपालिका कह रही है कि सबसे अच्छी सूखी होली! कुछ वैसे ही जैसे कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा! ठीक भी है, गंगा देखी ही नहीं (और अब तो गंगा बची भी नहीं!) तो कठौती का पानी ही गंगा बनेगा न! कोई कह रहा था कि महानगरों में जब होली आती है, तो मन तेजी से अपने घर की तरफ भागता है. अब यह भी अजीब है न कि हम रहते नगरों- महानगरों में हैं, लेकिन वहां किसी का घर नहीं होता. हम वहां रहते भर हैं. मुंबई में तो कोई यह नहीं पूछता कि आपका घर कहां है, पूछते हैं- खोली किधर है! खोली यानी जहां आप अपने ‘घर’ की याद करते हुए दिन काटते हैं. मौका खोजते हैं कि कब, कैसे घर भागें! तो फिर यहां आये क्यों? उदास आंखों से जवाब आता है- यहां भाव नहीं मिलता, वहां भूख नहीं मिटती! भाव और भूख दोनों जहां मिलते और मिटते हों, वहां घर होता है यानी कि संस्कृति होती है. ऐसा घर कहीं भी हो सकता है- महानगर में भी अगर आपको संस्कृति की पहचान हो. वह सांस्कृतिक धरोहर ही हाथ से फिसलती जा रही है. सारी संस्कृति बाजार ने खरीद ली है, या हमने बेच दी है! इसलिए बड़े-बड़े विज्ञापन बताते हैं कि होली की मस्ती का आयोजन कहां-कहां किया गया है- कोई बड़ा होटल है, कोई बड़ा क्लब या कोई ‘इवेंट’ ऑर्गेनाइज करने वाली कंपनी है, जिसने होली का त्योहार रचा है. जाइए और होली खरीद लाइए! होली का एक दूसरा रंग भी है- सितारों की होली! किस फिल्मी सितारे के यहां कैसी होली जमी, इसके किस्सों में भी कई लोगों की होली कट जाती है. पुराने लोग कहते हैं कि होली तो ‘आरके’ की होती थी. आरके यानी राजकपूर. लंबा अरसा हुआ राजकपूर को गये, लेकिन फिल्मी लोगों को उनकी होली कसक के साथ याद आती है. यह पुरानी यादों में जीना है? नहीं, पुराने में आज के लिए खाद खोजना है. देश के कोने-कोने से यहां मुंबइया फिल्मी दुनिया में आ कर, जिन्होंने अपना घर बनाया, राज कपूर ने उस फिल्मी होली को संस्कृति में बदल दिया. उसे परंपरा की गंध दी. वह गंध याद आती है, वह घर याद आता है. लेकिन, पुरातन की जुगाली अच्छी नहीं होती. वह तुम्हें भी पुराना, बीता हुआ बना देती है. यह तो मानी हुई बात है कि पुराना लौटेगा नहीं, आज जो है वही हकीकत है. इस आज को अपने रंग में रंगिये तो होली फिर से रंगीन हो जायेगी. खोजना है जीवन का, मन का रंग! वह खो गया है, इसलिए होली बेरंग हो गयी है. उसे खोजिये, उसे रंगिये और अपने साथ के लोगों को शरीक कर होली खेलिये. देखियेगा, रंग फिर चोखा आयेगा.


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