मोदी की छाप-तिलक सब उनकी अपनी कमाई

रिपोर्ट: पुष्पेन पन्त

इस साल भारत ने दूसरे देशों के साथ रिश्तों की नयी इबारत लिखने की ओर सधे हुए कदम बढ़ाये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी नौ विदेश यात्राओं के क्रम में एक तरफ बड़े देशों से संबंध सुधारा, तो छोटे देशों से दोस्ती पर भी उतना ही ध्यान दिया. किसी भारतीय प्रधानमंत्री का 33 साल बाद फिजी पहुंचना चर्चा का विषय रहा. भारतीय प्रधानमंत्रियों की विदेश यात्रएं आरंभ से ही-नेहरू के कार्यकाल से ही-चर्चा का विषय बनती रही हैं. इसलिए यह दावा बहुत संगत नहीं लगता कि वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी की असाधारण राजनयिक सक्रियता ने कोई अभूतपूर्व उपलब्धि दर्ज करायी है, परंतु यह सवाल उठाना जायज है कि वर्तमान प्रधानमंत्री के बाहरी मुल्कों के दौरे अपने पूर्ववर्तियों से कितना और किस तरह अलग है? बात शुरू नेहरू से करें, तो यह याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री बनने के पहले ही नेहरू मशहूर हो चुके थे और 1930 के दशक में ही उनके अंतरराष्ट्रीय दौरे सुर्खियों में छाने लगे थे. 1927 में वह ब्रसेल्स पहुंचे लीग अगेन्स्ट इंपीरियलिज्म के सम्मेलन में भाग लेने, फिर रुख किया नये रूस का, जहां सोवियत संघ के गठन के बाद समाजवादी सपने का विश्वव्यापी निर्यात किया जाने लगा था. जब 1936-37 में यूरोप पर युद्ध के काले बादल मंडरा रहे थे, पंडित जी ने कृष्ण मेनन के साथ गृहयुद्ध ग्रस्त स्पेन का भ्रमण किया. सनयात सेन के साथ उनके दोस्ताना संबंध थे, पर इसके बावजूद माओ की अगुवाई में लड़े जा रहे छापामार अभियान में उनकी दिलचस्पी थी. नेहरू की छवि का निर्माण करने में अनेक लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. यहां बहुत विस्तार में जाना संभव नहीं पर स्वाधीनता प्राप्ति के बाद अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों की नेहरू की यात्रएं इससे निश्चय ही लाभान्वित हुईं. मजेदार बात यह है कि गांधी के राजनीतिक वारिस होने के साथ-साथ नेहरू को ब्रिटेन में पढ़ाई का और लॉर्ड माउंटबेटन की ‘दोस्ती’ का भी भरपूर फायदा होता रहा. 1946 में अमेरिका यात्र के दौरान उन्हें सुनने को खासी भीड़ जुटी और चीन के दौरे पर भी मेजबानों ने मेले जैसा माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हिंदुस्तान पहुंचने पर विदेशी मेहमानों की जैसी आवभगत होती थी-ाुश्चैव-बुल्गानिन हों या आइजन हॉवर अथवा चाउ एन लाई, शाहंशाह-ए-ईरान, इब्न-सऊद या महारानी एलिजाबेथ, वैसी ही तवज्जो नेहरू को दी जाती थी. लाल बहादुर शास्त्री के नाम के साथ जुड़ी है- ताशकंद की यादें. 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद इन दो देशों के बीच शांति समझौता यहीं संपन्न हुआ था. शास्त्री जी ने अपनी असाधारण विनम्रता से सभी को मोह लिया था. अकस्मात दिल का दौरा पड़ने से वहीं उनका देहांत हो गया और यह अध्याय अधूरा ही छूट गया. पर यह संक्षिप्त अंतराल यह दर्शाने को काफी था कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी छाप छोड़ने के लिए नेहरू सरीखी कुलीनता या अंग्रेजियत अनिवार्य नहीं. न ही मेजबानों को अपनी विद्वता से आतंकित करने की कोई विवशता होती है. इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री बनना ‘लाल गुलाब’ की वापसी कहा जाता है. यह फूल नेहरू को प्रिय था और संकेत यह दिया जा रहा था कि इंदिरा ही अपने पिता की विरासत संभाल सकती हैं.नेहरू के जीवनकाल में वही प्रधानमंत्री निवास की मेजबानी संभालती थीं. वह फर्राटे से फ्रांसीसी बोलती थीं और विदेशियों के लिए अपरिचित नहीं थीं. प्रधानमंत्री का पदभार संभालने के बाद उनके विदेशी दौरे खासे चर्चित रहे. फ्रांस और मॉरीशस में बिना दुभाषिये के नेताओं तथा जनता से सीधा संवाद कर सकने की क्षमता से लोग चकित होते थे. दूसरी महिला नेताओं के साथ उनका नाता सहजता से जुड़ जाता था. मजेदार बात यह है कि विषम परिस्थितियों में भी एक बार अमेरिकी यात्र के वक्त वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉनसन उन से बेहद प्रभावित हुए थे और बिन बुलाये मेहमान की तरह भारतीय राजदूत के निवास पर पहुंच गये थे और खाना खाकर ही लौटे! पर आपातकाल के बाद इंदिरा की छवि धूमिल हुई और कई विदेशी दौरों में उनकी मेजबानी बिना गर्मजोशी के रस्म-अदायगी के अंदाज में ही हुई. अगर मोदी से तुलना करें, तो एक बड़ा फर्क साफ नजर आता है. महाभारत के कर्ण के शब्दों में- ‘दैवायुत्तं कुले जन्म मदायुत्तं च पौरुषम् वाला!’ शुरुआती दौर में इंदिरा में आत्मविश्वास का अभाव था और इसकी भरपाई वह बपौती भुना कर करती थीं. बाद में भी उनके दौरे नेताओं तक सीमित रहे- प्रेस सम्मेलन को छोड़ सार्वजनिक जनसभाओं को संबोधित करने का प्रयास उन्होंने नहीं किया. खालिस्तानी संकट के प्रकट होने के बाद विदेशों में उनका कद निश्चय ही घटा. फिर भी इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रकुल सम्मेलन हों, संयुक्त राष्ट्र की आमसभा अथवा गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन हो, इंदिरा अकसर तीसरी दुनिया के वंचितों के सरोकार मुखर करती थीं और इसी कारण उनके विदेशी दौरे ऐतिहासिक आयाम ग्रहण कर सके. मोरारजी की कोई दिलचस्पी वैदेशिक मामलों में नहीं थी. चरण सिंह को इस बात का गर्व था कि उनके पैरों की धूल उनके प्यारे उत्तर प्रदेश के अलावा कभी कहीं और बिखरी ही नहीं. अत: राजीव की ताजपोशी के साथ ही भारतीय प्रधामंत्री की गरिमामय विदेश यात्रओं का पुनरारंभ हो सका. राजीव युवा थे और बेहद सहज भी थे. रूस, अमेरिका ही नहीं अन्यत्र भी उनका स्वागत तह-ए-दिल से किया गया. पर श्रीलंका-संकट के विस्फोटक बनने के कारण और बोफोर्स घोटाले में उनका नाम उछलने की वजह से राजीव कभी अपने वैदेशिक दौरों में खास छाप नहीं छोड़ पाये. राजीव के बाद वाले भारतीय प्रधानमंत्रियों में खुद को राजनय का दिग्गज समझनेवाले गुजराल का जिक्र जरूरी है, जो आपातकाल में केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाले जाने के बाद बरसों रूस में हमारे राजदूत रहे. उनकी प्राथमिकता पड़ोसियों को एकतरफा रियायत से रिझानेवाली थी. पर बहुत छोटे कार्यकाल की वजह से वह अपने दौरों को किसी अश्वमेध जैसे अभियान की शक्ल नहीं दे पाये. जिस प्रधानमंत्री से मोदी के दौरों की तुलना सार्थक है, वह अटल बिहारी वाजपेयी हैं. राष्ट्रप्रेम की बेहिचक अभिव्यक्ति हो या हिंदी में विदेशियों का संबोधन, ओजस्वी वक्तृता का जादू हो या जनता से सीधे नाता जोड़नेवाली अदा दोनों में दिखलाई देती है. पर यहां भी महत्वपूर्ण फर्क रेखांकित करने की दरकार है. अटलजी प्रधानमंत्री बनने के पहले विपक्ष के नेता के रूप में, विदेश मंत्री पद पर कार्य करते हुए मशहूर हस्ती बन चुके थे. आत्मविश्वास से भरपूर वही अकेले नेता थे, जो पाकिस्तान की यात्र का जोखिम उठा सकते थे. मोदी ने शपथ ग्रहण से ही जोखिम उठाने का फैसला कर लिया था. इस निर्णय ने आगामी महीनों में उनकी विदेश यात्रओं का स्वरूप तय किया है. मोदी की अदा ‘रॉकस्टार’ वाली रहती है. वह पहुंचने के पहले ही जोशो-खरोश और उत्तेजक प्रतीक्षा का ऐसा माहौल सिरज देते हैं कि सरकारी मेजबान चकित रह जाते हैं. अमेरिका में मैडिसन स्क्वायर हो या सेंट्रल पार्क अथवा सिडनी वाला जलवा, उनसे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इस शैली को नहीं अपनाया था. यह सच है कि नेहरू की रूस यात्र के दौरान बड़ी भीड़ जुटती थी और राज कपूर-नर्गिस की फिल्मों के तराने आज भी रूस में लोकप्रिय हैं, पर यह तिलिस्म नेहरू का कम बॉलीवुड का ज्यादा लगता है. मोदी की छाप-तिलक सब उनकी अपनी अर्जित-निर्मित है. विरासत में मिली या पेशेवर सरकारी सलाहकारों के सहयोग पर आधारित नहीं. यहां अगर तुलना किसी से की जा सकती है, तो वह इंदिरा ही हैं. इकबाल की वह पंक्ति दोनों पर फिट बैटती है- खुदी को कर बुलंद इतना.. वाली! बेचारे सदा मौनधारी बुत जैसे मनमोहन या मुंह बनाते नरसिम्हा राव के दौरों का नामोल्लेख भी इस संदर्भ में समय का अपव्यय लगता है. 77 अरब डॉलर के निवेश की उम्मीद जगी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश यात्रओं के दौरान दुनिया के 45 अंतरराष्ट्रीय नेंताओं से मुलाकात की. राज्यसभा में सरकार द्वारा पेश वक्तव्य के मुताबिक, श्री मोदी ने अगले पांच वर्षो में देश में 77 अरब डालर से अधिक के निवेश का मार्ग प्रशस्त किया है तथा प्रवासी भारतीयों में एक उत्साह पैदा किया है. इसके अतिरिक्त उन्होंने लुक ईस्ट नीति को एक्ट ईस्ट नीति में बदल दिया है. ऑस्ट्रेलिया में संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करनेवाले नरेंद्र मोदी पहले भारतीय पीएम और फिजी में नये संविधान के तहत चुनी गयी संसद को संबोधित करनेवाले पहले अंतरराष्ट्रीय नेता बने. फिजी यात्र के दौरान श्री मोदी ऐसे पहले भारतीय नेता बने जिन्होंने प्रशांत महासागर क्षेत्र के देशों के नेताओं के साथ बैठक की. दूसरों के मुकाबले ज्यादा दौरा वर्ष 2009 में तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने मई से नवंबर के बीच करीब 29 दिन विदेश दौरों में बिताये थे. हालांकि भारत के इतिहास में किसी दूसरे प्रधानमंत्री के मुकाबले अब तक मोदी के बहुपक्षीय और द्विपक्षीय विदेश दौरे की तादाद ज्यादा है.


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