फिल्म समीक्षाः बदले की कहानी का बीज है \'बदलापुर\'

रिपोर्ट: sabhar

इस फिल्म की शुरुआत से पहले एक अफ्रीकी कहावत पर्दे पर चमकती है, ‘कुल्हाड़ी भले ही भूल जाए, मगर पेड़ उसे याद रखता है।’ बदलापुर ऐसी ही फिल्म है। श्रीराम राघवन भले ही कभी इसे भूल जाएं, मगर देखने वाले याद रखेंगे। फिल्मकार की दर्शकों से अपील है कि शुरुआत ‘मिस’ न करें। बदले की कहानी का बीज यहां है। मगर आप शुरुआत न भी देखें तो समझ जाएंगे कि हीरो क्यों और किससे बदला लेना चाहता है। बदलापुर अपनी कहानी में अंत के सिवा कुछ नया पेश नहीं करती। अंत भी बेहद निष्क्रिय किस्म का। जिसमें आप खलनायक को मरते हुए तक नहीं देखते और एक सेक्स वर्कर हीरो को यह सीख देती है कि बदले की बात अब छोड़ दो। वह मर गया है। जिंदगी ने तुम्हें दूसरा मौका दिया है। सबको यह मौका नहीं मिलता। एकाएक आप पाते हैं कि हवा निकल जाने से गुब्बारा ‘लुल’ हो गया है! फिल्म के एक सीन में थ्रिलर उपन्यास पढ़ती पत्नी से हीरो कहता है, ‘इससे बैटर (बेहतर) क्लाइमेक्स तो मैं दे सकता हूं।’ बदलापुर देख कर दर्शक के मन में भी यही खयाल आता है। कहानी राघव (वरुण धवन) की है, जिसकी पत्नी और बेटा एक बैंक डकैती की घटना में मारे गए। डकैत लायक (नवाजुद्दीन) और हरमन (विनय पाठक) फरार होने के लिए जिस कार में बैठते हैं उसमें राघव की पत्नी (यामी गौतम) पहले से है। धक्का-मुक्की में बेटा कार से गिरकर मर जाता है और चीखती-चिल्लाती मां को लायक गोली मार देता है। पकड़े जाने पर लायक पुलिस से कहता है कि मैं सिर्फ ड्राइवर हूं। जो पैसे लेकर भाग गया, गोली उसने मारी। अदालत उसे बीस साल कैद की सजा देती है। अब राघव को लायक की रिहाई के साथ उसके साथी के नाम-पते की तलाश है। वह बदला लेना चाहता है और मुंबई-पुणे के बीच बदलापुर नाम की जगह पर रहने लगता है!!


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