डार्क फिल्में जरूरी हैं: अनुराग कश्यप

रिपोर्ट: साभारः

रियलिस्टिक सिनेमा अनुराग कश्यप की पहचान रही है। उनकी अगली फिल्म 'अग्ली' है। धूम्रपान के बारे में एक डिस्क्लेमर शामिल करने को लेकर उन्होंने करीब एक साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी। फिल्म और जिंदगी के अन्य पहलुओं पर उन्होंने बेबाक बातचीत की : 'अग्ली' की कहानी 2006 में लिखनी शुरू की थी.... मेरी हर फिल्म ऐसी ही बनती है। कोई समय सीमा नहीं है। सिर्फ 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' सबसे फास्ट बनी। 'अग्ली' की स्क्रिप्ट मैंने 2006 में लिखनी शुरू की थी। इसकी प्रेरणा मुझे कहानियों और अखबारों से मिली थी। लखनऊ में स्पेशल टास्क फोर्स के एसटीएफ के मुखिया अमित पाठक से अपहरण की प्रक्रिया को जानने में मदद ली। यहां पर अमिताभ गुप्ता भी हैं। उन्होंने भी काफी मदद की। अमित ने भी दो-तीन सच्ची घटनाएं भी बताई थीं। हालांकि मैंने जो परिकल्पना की वह बदलती गई। यह 2006 में जो सोची गई, वह फिल्म नहीं है। रिलीज में देरी की वजह धूम्रपान के बारे में एक डिस्क्लेमर शामिल करने को लेकर आपकी असहमति थी। आपके रुख में कोई बदलाव आया? हम यह मुकदमा लड़ रहे थे, लेकिन अब हमें धूम्रपान विरोधी बात जोडऩी पड़ी है। हम अदालत में पराजित हुए हैं। मैं अब भी यही कहूंगा कि फिल्म के बीच में डिस्क्लेमर दिखाने का कोई तुक नहीं है। मेरा खयाल है कि इससे फिल्म का मूड बिगड़ेगा। अग्ली है अलहदा: विनीत सिंह 'अग्ली' के शुरुआती दस मिनट आपकी जिंदगी से ताल्लुक रखते हैं? मेरी बेटी ने फिल्म का पहला सीन देखा था और कहा था पापा पैसे दो। दरअसल, फिल्म में पापा और बेटी की कार में लड़ाई का दृश्य मेरा और मेरी बेटी का है। यह फिल्म कहीं न कहीं मेरे गिल्ट से आई थी, जब मैं 2006 में इसे लिख रहा था। दरअसल, काम की व्यस्तता के चलते मैं अपनी बेटी के साथ ज्यादा समय व्यतीत नहीं कर पाता था। उस समय मैं संघर्ष के दौर से गुजर रहा था। फिल्में रिलीज नहीं हो पा रही थी। बैन थीं। यह सब लिखना वहीं से शुरू हुआ था। बनते-बनते कहीं और चला गया। कान फिल्म फेस्टिवल में फिल्म को स्टैडिंग ओवेशन मिलने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया थी? मैंने काफी रिलीफ महसूस किया। यह बहुत इमोशनली डिफिकल्ट फिल्म है। फिल्म का कंटेंट बहुत सशक्त है। जब कान में दिखाई गई थी तब पूरी तरह इसकी एडीटिंग भी नहीं की गई थी। डर था कि लोग कैसे रिएक्ट करेंगे। तारीफ मिलने पर मनोबल और बढ़ा। फिल्म को फिर दो महीने में पूरी तरह रिफाइन किया। डार्क सिनेमा से इतना लगाव क्यों? डार्क सिनेमा रियलिस्टिक फिल्में हैं। यह फिल्में जरूरी हैं। विदेशी फिल्मों में बडमैन जैसी या कॉन गर्ल या नाइट कॉलर जैसी फिल्में ऑस्कर के लिए नामांकित होती हैं। इन्हें अच्छा सिनेमा माना जाता है। हिन्दुस्तान में इसे डार्क बोलकर किनारा कर दिया जाता है। विदेश में ऐसा नहीं होता। रियलिस्टिक दिखा कर सिनेमा को क्लीन करने की कोशिश है? नहीं ऐसी कोई कोशिश नहीं है। मैं वो बनाऊंगा जो मुझे समझ में आता है। 'अग्ली' जैसी फिल्म इंस्टिंक्ट से आती है। यह फिल्म बहुत कुछ कह रही है जो बाकी फिल्में नहीं कहती। आम धारणा है क्लीन माहौल, गीत संगीत से परिपूर्ण फिल्में चलती हैं। यह सच नहीं है। यह तब तक साबित नहीं होगा जब तक हम अलहदा फिल्म नहीं बनाएंगे। आप की लाइफ का अग्ली हिस्सा क्या रहा है? बहुत सारे। आप उनके बारे में बताते नहीं हैं। उनसे बहुत कुछ सीखते हैं। मैं हर चीज से सीखता हूं। जो मन में होता है उसे फिल्मों में उड़ेलता हूं और मुक्त हो जाता हूं। लाइफ में कोई रिग्रेट नहीं है। आपने कई शॉर्ट फिल्म भी बनाई हैं? देश में इनका क्या भविष्य है? फीचर भी शार्ट फिल्म है। शार्ट फिल्म का बहुत स्ट्रॉन्ग फ्यूचर है। स्क्रीन छोटा होगा तो फिल्म की लेंथ भी कम होगी। लोग धीरे-धीरे अपने लैपटॉप और मोबाइल पर शॉर्ट फिल्म देखेंगे। मार्केट में वही सरवाइव करेंगे जिसके पास कंटेंट है। निर्देशक के स्क्रिप्ट राइटर होने का क्या फायदा होता है? अगर निर्देशक खुद स्क्रिप्ट लिखता है तो उसका कहानी से गहराई से जुड़ाव होता है। मैं उस डायरेक्टर को कभी ब्रेक नहीं दूंगा जो अपनी स्क्रिप्ट खुद न लिखे। आपकी बेटी भी फिल्म निर्माण में रूचि लेती है? अभी वो 14 साल की है। फिलहाल पढ़ रही। 'बॉम्बे वेलवेट' में कुछ दिन असिस्टेंट बनने आई थी। सीखने के लिए नहीं आई थी। उसे दो हजार तनख्वाह पर रखा गया था। एक महीने काम किया। वैसे वह अपनी शॉर्ट फिल्म बनाती रहती है।


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